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Monday, 19 February 2018

स्वप्निल रिश्तों की अभिलाषा


बाँच सका हूँ इन आँखों में
सच्ची प्रेम भरी परिभाषा।
नयन झील में उमड़ रही क्या
स्वप्निल रिस्तों की अभिलाषा।।


इतना प्यार उमड़ता देखा
इससे पहले कभी नहीं।
इससे मूल्यवान न कुछ भी
जिसने बोली बात सही।।
सचमुच में जुड़ आप से
अब इस जन्म-जन्म की आशा।।


जिव्हा हिली, न लब थिरके,
पर दिल की कह डाली।
कैसी अदा तुम्हारी झोली में
विधना डाली।।
अलिखित किन्तु 
पढ़ी जाने वाली अंतस भाषा।।


मैं तो सदा तुम्हारी बाहों
का  झूला चाहूँ।
सच पूछो तो तुमको पाकर
मैं खुदको भूला।।
आज समझ में आई मेरे
नयनों की भाषा।।



बाँच सका हूँ इन आँखों में
सचमुच प्रेम भरी परिभाषा।
नयन झील में उमड़ रही क्या
स्वप्निल रिश्तों की अभिलाषा।।
गीत-डाॅ.मोहन तिवारी‘आनंद’

Wednesday, 14 February 2018

आलेख : सच और झूठ का सिक्का

सच और झूठ का सिक्का 


          मेरे मित्र ने मुझे पूछा कि तुम्हारे जीवन में सच और झूठ का क्या महत्त्व है ? मै इस अनोखे परंतु अपने स्वभाव से परिचित प्रश्न से सोच में पड़ गया। जवाब भी क्या देता मैं? सच को अधिक महत्त्व देता हूँ तो फिर मन में प्रश्न उठा कि क्या मैं हमेशा सच का साथ देता आया हूँ? नहीं तो झूठ को अधिक महत्त्व दूँ तो क्या मैं सच से ज्यादा झूठ व्यवहार में लाता हूँ? मैं दुविधा में था। मैंने उस मित्र को उस समय सही उत्तर खोजने में अपने-आप में असमर्थ पाया। विनम्रता से मैंने दोस्त से कहा,"मुझे कुछ समय दो, तो निश्चित इसका जवाब तुम्हें दे दूंगा।" इसके बाद मिले समय में मैंने खुद का आत्मपरीक्षण किया और कुछ निर्णय किया वह कुछ ऐसा था -
          मैंने बचपन से लेकर आजतक अपने जीवन को इस कसौटी पर परखने की कोशिश की। बचपन में जैसे ही थोड़ी-थोड़ी समझ आई तो परिवार के सदस्यों की आज्ञा के अनुसार काम करना पड़ा। कभी माँ-पिता जी, दादा-दादी जी , चाचा-चाची जी तो कभी पड़ोसियों के निर्देशित काम करने थे, उस समय मुझे लालच देने की बात होती थी। जैसे चॉकलेट, पैसे, खिलौनें आदि। और बचपने की वजह से हम काम भी कर लेते थे, और दिया हुए लालच के अनुसार चीजें मिलती गई, परंतु हर बार मिल पाना असंभव था लेकिन लालच देना बंद नहीं था। ऐसे व्यवहार की वजह से बड़े लोगों के झूठ बच्चे तो उन्हीं के सामने पकड़ते हैं और कहते भी हैं, "आप झूठे हो, काम तो करवाते हो पर बोली के अनुसार मुआवजा नहीं देते हो।"
          अक्सर ऐसी घटनाएँ घर-घर में होती हैं परंतु बड़े-बुजुर्ग बच्चों के बचपन को बचपने की तरह देखते हैं। यही बच्चे बड़े होकर अन्य छोटे बच्चों के साथ आदत के अनुसार झूठा व्यवहार करते हैं। इन्हीं के बीच माता-पिता के व्यवहार भी देखे कि बच्चे की कोई भी माँग पूरी करने न करने में सच और झूठ बराबर चलता अनुभव होता है। परंतु एक ही माहौल में दो अलग-अलग अनुभव आए 'झूठ और सच' के। यह सिर्फ एक प्रारंभिक उदहारण था। न जाने ऐसे कितनी ही बातें है जो सच और झूठ से जुड़ी हैं। 
          मानव स्वभाव ‘व्यक्ति-व्यक्ति मति भिन्न’ इस उक्ति के अनुसार होता है। सच और झूठ मनुष्य के सामाजिक माहौल, शिक्षा, आवश्यक उपलब्धियाँ, जरूरतें आदि घटकों पर निर्भर हैं ऐसी मेरी सोच है। पाठशाला में पढ़ते समय अनेक परिचित महानुभवी, ज्ञानी, शिक्षाविद, ऐतिहासिक कर्मनिष्ठ एवं महान व्यक्तियों के उदहारण सामने रखे जाते थे। ऐसा इसने किया और उसने ऐसा किया, परंतु बतानेवाले ने स्वयं क्या किया यह कभी बताने एवं समझने-समझाने की कोशिश ही नहीं की। बस दूसरों की बात गढ़ते-गढ़ाते चले जाते हैं।सुननेवाले उन महान लोगों की वास्तविकता से अनभिज्ञ रह जाते हैं। जब सच्चाई सामने आ जाती है तो जो अवगत कराया उसे झूठा पाया जाता है। ऐसी परिस्थिति में किसके पक्ष-विपक्ष में कहे। यह तो हर किसी के ज्ञान और समय की बात है क्योंकि देनेवाला भी अपना और पाने वाले तो स्वयं हैं। बहुत से लोग कहते हैं - 'गांधीजी की सीख - सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह का अनुसरण करोगे तो तुम्हारा जीवन सफल हो जाएगा।' परंतु वही जब गांधीजी की सिखावन को उन्हीं की तस्वीर और पुतले के सामने पैरों तले कुचली जाती हैं तब शायद बापू की भी रूह काँपती होगी। और आज तो मनुष्य अपनी उपभोक्तावाद भरी जिंदगी में समय-दर-समय झूठ और सच का ऐसा व्यवहार धड़ल्ले-से कर रहा है।
         स्वभाविकतः हर एक मनुष्य समय के अनुसार सच और झूठ का प्रयोग करता है। परंतु इतिहास गवाह है झूठ हमेशा सच के सामने झुका हुआ पाया है। इतना सबकुछ ज्ञात होने के बावजूद भी मनुष्य कई बार सच और झुठ के व्यवहार में निर्णय नहीं कर पाता। परिणामतः झूठ के लिए सच और सच के लिए झूठ का सहारा लेता है।और वास्तविकता जब विपरीत सामने आ जाए तो भले-बुरे परिणामों का सामना करना पड़ता हैं। सच तो अंतर्मन की आवाज है। झूठ समय के अनुकूल-प्रतिकूल का डर है, ऐसी मेरी धारणा है। 'सच' तो खरा, यथार्थ और वास्तविक होता है, उसके लिए कोई झूठा नकाब पहनने की आवश्यकता ही नहीं। परंतु झूठ को छिपाने के लिए झूठ-पर-झूठ की बौछार की जाती है यह भी एक सच्चाई है। आखिर झूठ भी तो एक सच है। लेकिन एक और सवाल मन में उभरे बिना नहीं रहता। जैसे सच निहायत जरुरी है वैसे क्या झूठ निहायत जरुरी हो सकता है ? 
         अक्सर न्याय भी केवल सच्चाई चाहता है और न्याय देते समय सच्चाई की शपथ दी जाती है लेकिन ईमानदारी से सच्चाई को स्वीकारने वाले का ढ़ाढस गिने-चुने लोग ही करते है। झूठे सबूत और गवाहों के कारन भारत वर्ष में कई निरपराध दोषी ठहराएँ जाते हैं और वे बेचारे बिना वजह सजा भुगतते हैं। जब नकाब उतर कर सच्चाई सामने आ जाती है तो समय आगे जा चूका होता है। वह इंसान पहले जैसा मान-सम्मान नहीं पा लेता। भले ही वह सही था पर समय और सच्चाई के रखवालों के कारन अपने ही नज़रों में उसे सम्मान पाना मुश्किल हो जाता है। सभी विद्व जनों से पूछना चाहूँगा कि ऐसी हालात में किस सच को 'सच और झूठ' मानेंगे। जो सच-झूठ मान-सम्मान खो दे। यह वास्तविकता एक तरफ है और दूसरी ओर कहा जाता है कि सौ अपराधी छूट जाए तो भी चलेगा परंतु एक निरपराध को सजा नहीं होनी चाहिए। इस बात पर हँसी छूटती है कारन एक ही स्थान पर एक ही बात के लिए सच और झूठ के लिए पक्का निर्णय हो पाना मुश्किल हो जाता है। यह तो न्याय-अन्याय की बात है। व्यावहारिक जीवन में तो सच को बचाने लिए झूठ, और झूठ को बचाने के लिए और झूठ का सहारा आम बात हो गई है। सामान्य बातों में इस बात का बवाल नहीं होता है। पारिवारिक रिश्तों को निभाते हुए इस बात को बड़ी सावधानी से रखना होगा। रिश्तों में झूठ को कोई स्थान नहीं होना चाहिए। परिवार हो या रिश्तें इसी नींव पर जीवन का महल खड़ा होता है। पारिवारिक रिश्तों को सँभालते हुए देखा गया है कि अपनों की ख़ुशी के लिए झूठ का भी सहारा बड़े आत्मविश्वास के साथ लिया जाता है, परंतु उसमें अपनों की भलाई ही छिपी होती है, इसमें कोई गुंजाईश नहीं। इसके विपरीत स्वांत-सुखाय हेतु यदि इसमें झूठापन आएगा तो पलक झपकते ही घर टूटने को देर नहीं होगी। रहीम जी ने सही कहा है-
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरउ चटकाय।
टूटे से फिरि न जुरै, जुरै परि गाँठ परि जाए।।
           पारिवारिक रिश्तों में अविश्वास और झूठ से एक बार किसी के मन में अविश्वास घर करे तो उसे मिटाना मुश्किल ही होता है। भले ही हम वास्तविकता को सच्चाई अथवा झूठ का सहारा लेकर बताने की कोशिश करेंगे तो भी पहले जैसा आत्मीय रिश्ता जूटा पाना कठीन हो जाता है। तो चलिए सच्चाई के साथ रिश्ते निभाए। झूठ यदि किसी के जान, मान, सम्मान, भलाई के लिए हो तो जरूर झूठ का सहारा लेना चाहिए, ऐसे झूठ को तो सच्चाई भी अपनाती है। ऐसे जीवन में मिठास भरनेवाले झूठ को अपनाने में दोष नहीं क्योंकि मरणासन्न व्यक्ति को भी जीने की झूठी तसल्ली तो सभी देते हैं। आत्मीय सुख के लिए सच को झूठ और झूठ को सच करने वालों को स्वयं की खुदगर्जी भी माफ़ नहीं करेगी।
         मित्र द्वारा दिए समय में बहुत सोचने के बाद इतना ही बता पाया - 'दोस्त सच्चा झूठ और झूठा का सच परखना याने कि नदी के दो किनारों को एक करने जैसा होगा क्योंकि जहाँ नदी के दो किनारे एक हो जाते है वहाँ नदी का अस्तित्व मिट जाता है, उसे बस नाम के लिए नदी कहा जाएगा जिसमें प्राण नहीं होगा। उसे बहने दीजिए। ठीक उसी तरह मानव जीवन में झूठ और सच चिपका हुआ है। जिस दिन इनमें से एक भी छूट जाएगा तो मानव 'मानव' नहीं रहेगा वह उसकी अंतिम गति होगी। मनुष्य सच को पकड़कर बैठेगा तो झूठ उसे नोचता रहेगा और झूठ को अपनाएगा तो जी नहीं पाएगा। इससे बात स्पष्ट है कि झूठ और सच एक दूसरे को बराबर विरुद्ध दिशा में चिपके हैं। जो कभी एक साथ नहीं देख सकते हैं, ना ही अपना सकते है और ना ही त्याग सकते है। बस अनुकूल-प्रतिकूल समय के अनुसार प्रयोग करें इसी में सभी की भलाई हैं।‘
***** धन्यवाद!!! *****
आलेख लेखन 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 

उप अध्यापक
ग्राम भिराडाचीवाडी
पोस्ट भुईंज, तहसील वाई,
जिला सातारा - 415 515 (महाराष्ट्र) 
9730491952 / 9545840063 
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गौरैया - सुरेश तन्मय

गौरैया पर एक रचना प्रस्तुत है--

रोज सबेरे खिड़की पर
गौरैया आती है
और चोंच से टिक-टिक कर
वह मुझे जगाती है।

उठते ही मैं उसे देख
पुलकित हो जाता हूं
पूर्व जन्म का रिश्ता
कोई अपना पाता हूं
चीं चीं चीं चीं करते
जाने क्या कह जाती है........

आँगन में कुछ दाने
चावल के बिखेरता हूँ
बाहर टंगे सकोरे में
पानी भर देता हूँ
रोज सुबह इस पानी से
वह खूब नहाती है...........

चहचहाहटें घर में
मेरे सुबह शाम रहती
इन पंखेरुओं की चीं चीं
सब चिंताएं हरती
साँझ,ईश वंदन,कलरव
के मन्त्र सुनाती है............

मिलकर गले लगाएं
इस भोली गौरैया को
और सुरक्षा - संरक्षण
इस सोन चिरैया को
घर आँगन में जो सदैव
खुशियाँ बरसाती है...
रोज सबेरे खिड़की पर
गौरैया आती है।

सुरेश तन्मय

Tuesday, 13 February 2018

अभिमत - हाइकु-संग्रह - रचनाकार : सूर्यनारायण गुप्त 'सूर्य'

'चूँ-चूँ-चूँ' और 'ची-ची-ची'
रचनाकार : सूर्यनारायण गुप्त 'सूर्य'
        प्रकृति के नियमों के अनुसार आए दिन नए ज्ञान, रीतिरिवाज, परंपरा, जीवनयापन की रीतियाँ आदि स्वाभाविकता के साथ आत्मसात कर लेता है। परंतु इनका स्वीकार करते हुए बढ़ते उपभोक्तावाद में वही मानव जन दूसरे मनुष्य से परे हो रहा हैं। यह जानते हुए भी मनुष्य आज के समय में इस बात को अनदेखा करते हुए अपने पारिवारिक रिश्ते, जीवन शैली एवं संस्कृति, वास्तविक जीवन विधान और खुद को जीना भूल गया है। साहित्य इन्हीं बातों को शाब्दिक में प्रस्तुत होकर खो रहे मानव जीवन बचाने की कोशिश में हैं। चाहे उस साहित्य की कोई भी विधा क्यों न हो। इसी प्रकार के साहित्य में आज पाश्चात्य विधा 'हाइकु' जो मूलतः जापानी विधा है, हिंदी साहित्य में भी अपना अनूठा स्थान बनाए बैठी है। इसका सारा श्रेय उन सभी भारतीय सशक्त हाइकु रचनाकारों को जाता हैं। आज हिंदी साहित्य के क्षेत्र में बहुत-से हाइकुकार हैं, परंतु हायकु विधा के मूल संविधान के अनुसार प्रभावी हाइकु रचना करनेवाले गिने-चुने हाइकुकार हैं। इन सबमें आज के समय के जेष्ठ एवं सशक्त हाइकु कलम के सिद्धहस्त हैं - आदरणीय, वंदनीय, गुरुवर्य, हाइकु साहित्य श्रेष्ठी श्रीमान सूर्यनारायण गुप्त 'सूर्य ' जी। तक़रीबन आपके डेढ़ हजार तक हायकु रचना लेखन संपन्न हुआ हैं। अभिमत 
            हाइकुकार सूर्यनारायण गुप्त 'सूर्य' से मिलने का अवसर चित्तौड़गढ़ में संपन्न साहित्यिक कार्यक्रम में प्राप्त हुआ। कार्यक्रम के आयोजक साहित्यकार राजकुमार जैन 'राजन' जी ने 'सूर्य' जी का परिचय कराते हुए कहा कि हिंदी साहित्यिक विधा 'हाइकु' के कभी न अस्ताचल की ओर प्रस्थान करनेवाले यह सूर्यनारायण गुप्त 'सूर्य' जी हैं। शाम के वक्त काव्य संगोष्ठी में 'सूर्य' जी ने एकसौ बढ़कर एक जीवन को अभिव्यक्ति देनेवाले हायकु सुनाए। वह समय मेरे जीवन में नई साहित्य विधा हाइकु का वास्तविक परिचय करनेवाला था। फिर निरंतर संपर्क में आने के कारन सूर्य जी मेरे जीवन में साहित्यिक गुरु का स्थान ग्रहण कर चुके थे इसका बोध भी न हुआ, इतने सरल, मितभाषी और स्नेही है 'सूर्य' जी । आपके द्वारा रचित 'चूँ-चूँ-चूँ' और 'ची-ची-ची' हाइकु संग्रह की रचनाओं का ज्ञान कृपाप्रसाद प्राप्त हुआ।
          सूर्य जी की कुछ हाइकु रचनाओं के प्रभाव के कारन जैसे ही यह किताबें मिली तो पाठक पठन के नियमानुसार मुखपृष्ठ, भूमिकाएँ एवं रचनाकार का स्वमत पढ़ता हैं। परंतु मैंने ''चूँ-चूँ-चूँ' हाइकु-संग्रह को अंतरंग में छपी 'हाइकु-स्तुति' से पढ़ना प्रारंभ किया। एक-एक करके जब यह किताब पढ़ रहा था तो वाचन छोड़कर उठने का ख़याल एक पल भी नहीं आया। लगातार तीन-साढ़े घंटे की एक ही बैठक में पूरा हाइकु संग्रह पढ़ लिया और उसके बाद अन्य बातों को भी पढ़  लिया। सचमुच पाठक को घंटों एक स्थान पठन के लिए बिठाकर रखने का कौशलपूर्ण रचना करने की कला आदरणीय सूर्यनारायण गुप्त 'सूर्य' जी में हैं। मानो ऐसा लगता है की सूर्य जी साहित्य को जीते है।
              आपने दोनों हायकु संग्रह के नाम- 'चूँ-चूँ-चूँ' और 'ची-ची-ची' शिर्षित किए है जो पंछियों की बोली के रूप में जानी जाती हैं। आपके हाइकु संग्रह पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि आपके शीर्षक पंछियों की बोलियाँ न होकर आज के उपभोक्तावाद के कारन समाज की दुरावस्था से आहत घायल स्वाभिमानी, समाजनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ, परिश्रमी, देशभक्त, प्रकृतिप्रेमी, संस्कृति प्रेमी,नीति एवं करुणा के सागर एवं समाजसेवी के मन की वेदना की आवाज ही अभिव्यक्त और दृष्टिगोचर हो जाती हैं।
             'चूँ-चूँ-चूँ' और 'ची-ची-ची' हाइकु संग्रह के शीर्षक हाइकु, हाइकु स्तुति और समर्पण प्रारंभ में ही आपकी कलम की कलाकारी व्यक्त कराती हैं।
मन की बात/ हाइकु ही कहेंगे/ मेरे हालत, आँखों का पानी/ आ कर सुना गयी/ मेरी कहानी और भाग्य का सफा/ रहा सदा मुझसे/ खफा ही खफा, आदि हाइकुओं से आप के जीवन की आभा प्रकट होती हैं जो आगे चलकर समस्त रचनाओं पर प्रभावित हुई दिखाई देती हैं।
            आज के समाज में नारी की हो रही अवहेलना को पढ़कर मन गदगद हो उठता हैं। जैसे - लड़की क्वाँरि/ हँसा देख दहेज़/ माँ की लाचारी, आज-दुल्हन/बिन दहेज़ बनी/ है विरहन, जलते देखा/ दहेज़ की ज्वाला में/ सिंदूरी रेखा आदि अन्य हाइकु में दहेज़ रूपी कलंक का बाजार आपकी कलम से स्वाभाविक व्यक्त हुआ है। तो दूसरी ओर पारिवारिक सास-बहू, माँ-पिता-पुत्र-पुत्री आदि रिश्तों में खींची अनचाही लकीर को हायकू में आप लिखते है - बेटों में बँटी/ बूढ़ी माँ की ममता/ किश्तों में फटी, वृद्धा आश्रम/ माँ-बाप कहते जहाँ/ बेटे का गम, माँ का ही दूध/ बड़ा होकर भूला/ उसका पूत, आदि रचनाएँ विभक्त परिवार की विवशता बयान करती है।
            प्रकृति पर रचे हाइकु भी पठनीय और हर्षोल्लास भरनेवाले हैं - सूरजमुखी/ भौरों का झुण्ड देख/  हो गई सुखी, प्रभु सौगात/ तारों का उपवन/ चांदनी रात, सोन चिरई/ डाल-डाल फुदकी/ गुम हो गई, प्याऊ है प्यासा/ समुद्र  रही/ यहाँ हताशा, फूल ये कहें/ काटों के साथ हम/ प्रेम से रहें, मेघों के राजा/ हरी-भरी धरती/ आ के सजा जा, आदि प्रकृति के विभिन्न रंग बिखेरती रचनाएँ संग्रहों में समाहित हैं।
         मानव जीवन को अभिव्यक्ति देते हुए आपके हाइकु जीवन सार कह देते हैं, जैसे  - धूप व छाँव/ आते-जाते रहते/ मन के गाँव, तीन सवाल/ रोजी, रोटी, लंगोटी/ करे हलाल, टूटे सपने/ पराये काम आये/ झूठे अपने, रिश्तों का जाल/ पैसे के लिए पूछे/ हाल व चाल, पैसे की आस/ आदमी को बना दे/ जिन्दा-सी लाश आदि। आजकल की श्रेष्ठत्व पाने की लालसा में अपने अस्तित्व की पहचान करानेवाली आपकी यह रचनाएँ हैं।       
               सच को सजा/ कलयुग  में मिले/ झूठ को मजा, पहने कड़ी/ देश को चूसें और/ बेचे आजादी, ताली या गाली/ लुटने में लिप्त हैं/ देश के माली, यह न्यायलय/ सच के लिए तो है/ यातनालय, आजादी मिली/ देश के लुटेरों की/ बाँहे ही खिली, गीता-कुरान/ इनके नाम पर/ चले दूकान, बापू सो गये/ काले राजनीतिज्ञ/ गोरे हो गये, आदि हाइकू आजादी मिले देश की अपनों द्वारा हो रही बर्बादी का दर्शन कराती हैं तो दूसरी और जीवन पथिक को सही दिशादिग्दर्शन करती हैं। जैसे सत्य के पाँव/ न झुके न झुकेंगे/ झूठ के गाँव, मान व शान/ मन का अहंकार/  दे अपमान, झूठ की भीड़/ उजाड़ दिया यहाँ/ सत्य की नीड़ आदि
              समग्र दोनों हाइकु-संग्रह के बारे में यह कह सकते हैं कि प्रकृति से लेकर आसमान तक और मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक ५-७-५ वर्णों में अंकित यह रचनाएं समस्त जीव-जगत का अस्तित्व की पहचान कराते है।
            आदरणीय सूर्यनारायण गुप्त 'सूर्य' जी द्वारा रचित साहित्य आसमान के सूर्य की तरह अनंत कल तक चमकता रहेगा इसमें कोई दो राय नहीं हैं। सूर्य जी आपके भविष्य के लिए आपके स्वास्थ्यसंपदा और सृजनशील साहित्यसंपदा के लिए बहुत-बहुत मंगल कामनाऍ।       
साभार, बहुत-बहुत धन्यवाद !

श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 

उप अध्यापक
ग्राम भिराडाचीवाडी
पोस्ट भुईंज, तहसील वाई,
जिला सातारा - 415 515 (महाराष्ट्र)  
9730491952 / 9545840063 

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Sunday, 4 February 2018

डॉ. मोहन तिवारी 'आनदं' जी की काव्य कृतियाँ


प्रगति के मुँह में लगा कलंक

भ्रष्ट व्यवस्था - जिम्मेदारी,
ज्यों छत्तिस का अंक।
प्रगति के मुँह में लगा कलंक।

किसकी किससे कौन कहेगा,
कब तक अत्याचार सहेगा।
जनगणमन की आशाओं का 
धुंधला हुआ मयंक।
प्रगति के मुँह में लगा कलंक।

मैं बोलूँ ! तुम सुनो ...,
और न खोले कोई जुबान।
गुस्ताखी की सजा सोच लो,
जो खा चुके..., किसान।
ये विकास का पीट ढ़िंढोरा
खुद बन बैठे शंख।
प्रगति के मुँह में लगा कलंक।

गंगा की सौगंध उठालें,
गौ-माता की कसमें खालें।
इनसे नीति धरम का रिश्ता
ज्यों बिच्छू का डंक ...।
प्रगति के मुँह में लगा कलंक।
गीत-डाॅ.मोहन तिवारी‘आनंद’

दोहे

पंचतत्व से घट बना, आये दस के काम।
दूजे को सुख बाँटकर, पाये खुद आराम।।

प्रेम मोहब्बत से जिओ, बैर-बुराई-त्याग।
दिल देकर दिल जीतिये, कर सच्चा अनुराग।।

छुरा-तमंचा से नहीं, कोई पाया जीत।
प्रेम और सद्भाव से, जग को बाँधे प्रीति।।

संस्कार मत भूलना, ये भारत के लोग।
दुनियाँ पीछे चलेगी, आयेगा संयोग।।

चाहो हिंसा जीतना, करो अहिंसक काम।
दुनिया में हो जायेगा, बापू जैसा नाम।।

डॅा.मोहन तिवारी ‘आनंद’


उज्ज्वल तारे अपने देखे



हमने तो तेरी आँखों में
दुनियाँ भर के सपने देखे 
तेरी सांसों में जीवन के
उज्ज्वल तारे अपने देखे।।

तुम ही हो ये जीवन मेरा
तुम ही आशाओं का बल हो।
तुमसे ही उम्मीद बंधी है
तुम ही कदम-कदम संवल हो।।
तुम पर जीवन न्योछावर कर
मार्ग सुगम सब अपने देखे
तेरी सांसों में जीवन के
उज्ज्वल तारे अपने देखे।।

मैंने तो तेरी बाहों में
खुद को खोया जग बिसराया।
केवल नयन झील में तेरी
शक्तिचैनसहारा पाया।।
बची हुई हर सांस -सांस में
नाम तुम्हारे जपने देखे।।
तेरी सांसों में जीवन के
उज्ज्वल तारे अपने देखे।।

मेरी कथनी पर यकीन कर
अपनी बाहों में अपनालो।
सच्चे मन से जनम-जनम को
मुझको अपना मीत बनालो।।
सदियाँ याद रखें हम दोनों
चित्र रचे सब जग ने देखे।।

हमने तो तेरी आँखों में
दुनियाँ भर के सपने देखे।
तेरी सांसों में जीवन के
उज्ज्वल तारे अपने देखे।।
                                                                                      डॅा.मोहन तिवारी ‘आनंद’

विकट समय आया
बदला रूप तुम्हारा देखा,
गिरगिट घबराया।
अरे राम ! क्या देख रहा हूँ
विकट समय आया।

खरबूजे की सुनी हुई थी,
दादी कही कहानी।
किन्तु आज जब आँखों देखी
याद आ गई नानी।
लगता है अवतार विभीषण
ने फिर दोहराया।
अरे राम ! क्या देख रहा हूँ
विकट समय आया।

कहाँ ढूँढ़ते भटक रहे तुम
विश्वसनीय सखा।
ये क्यों भूले आस्तीन में,
अपनी पाल रखा।
मौका मिला कि तुरत लपककर
झट से डस खाया।
अरे राम ! क्या देख रहा हूँ
विकट समय आया।
                                                                                                 डॅा.मोहन तिवारी ‘आनंद’
उसने  पहचाना।।
प्यार की परिभाषा  समझा
ये खुदगर्ज जमाना।
मैंने कितना चाहा
लेकिन उसने  पहचाना।।

प्यार की व्यथा निराली
जमाना देता गाली।
प्यार के बिना जिन्दगी
लगे है खाली खाली ।।
प्यार की इस नांदा नगरी में
सब का आना जाना।
मैंने कितना चाहा लेकिन
उसने  पहचाना।।

बिना कलम काजल के लिखता
ये जग प्रेम कहानी।
बांच  पायासमझ सका ,
इस जग की नादानी।।
आंखों की दरिया में ढूंढे,
ये पागल दीवाना।।
मैंने कितना चाहा
लेकिन उसने  पहचाना।।

प्यार की कोई जात नहीं,
होता है  मजहब।
पता नहीं किससे हो जाता,
प्यार कहां पर कब।।
प्यार का दरिया बड़ा अनौखा
डूब के मौज मनाना।।
मैंने कितना चाहा
लेकिन उसने  पहचाना।
प्यार की परिभाषा  समझा
ये खुदगर्ज जमाना।
मैंने कितना चाहा
लेकिन उसने  पहचाना।। 
                                                                                                डॅा.मोहन तिवारी ‘आनंद’


वे दिन कब आने वाले हैं,

झूम उठेगी धरा मौज से अन्न भरे होंगे खलिहान।
न कोई बेकार फिरेगा, हर्षित होंगे श्रमिक किसान।
खुशियों की बौछारें होंगी , सब दुर्दिन जाने वाले हैं।
वे दिन कब आने वाले हैं।

चोरी-लूट, डकैती का न देगा नाम सुनाई,
कमजोरों पर सीनाजोरी देगी नहीं दिखाई।
रामराज के सुखद दिवस दोहराने वाले हैं।
वे दिन कब आने वाले हैं।

मन्दिर-मस्जिद, गुरुद्वारों में भेदभाव का होगा अंत,
प्रेमभाव-भाईचारे की गूंजे लय-घ्वनि ताल अनन्त।
जाति-धर्म, मजहब के झगड़े विगत लाके जाने वाले हैं।
वे दिन कब आने वाले हैं।

काम के बदले दाम मिले होगा शोषण का अंत,
भ्रष्टाचार समूल नष्ट ईमान का राज सुखन्त।
नेता जी जनता का हित अपनाने वाले हैं.।
वे दिन कब आने वाले हैं।

हे प्रभु इनकी पूरी करदो, जो-जो बोली वानी,
इनके खातिर हम वृत रखलें बिन भोजन बिन पानी।
इनको सारे यश-सुख दे दो, परहित करवाने वाले हैं
वे दिन कब आने वाले हैं।
                                                                                                      डॅा.मोहन तिवारी ‘आनंद’
हौंठ पर हंसी कहां से लाएं, 
दिल के अन्दर मचा बवण्ड,
लब कैसे मुस्काएं, हौंठ पर हंसी ...।

प्रतिबंधित है श्वांस, समझ में आते न हालात,
दिन में चैन नहीं मिलता है,नींद न आती रात।  
कोसों दूर खुशी के डेरे, पल-पल चित्त उदास,
लगाएं किससे कैसी आश।
जिधिर ताकती नजरें सम्मुख अंधकार आएं।
हौंठ पर हंसी कहां से लाएं।

जीवन भर जितना बन पाया, परहित को साधा।
पता नहीं क्या चूक हो गई, जो घेरी बाधा।
ये सच है कि कभी विधाता करता नहीं अनीत,
भला करे से भला मिलेगा, सत्य कर्म की रीति।
केवल रह जाती है पीछे कहने वाली बात
वक्त तो आए-जाए,
दिल के अन्दर मचा बवण्ड,लब कैसे मुस्काएं, 

हौंठ पर हंसी कहां से लाएं।
                                                                                          डॅा.मोहन तिवारी ‘आनंद’

नाचें गाएँ मौज मनाएँ।
ये जीवन का बीज मंत्र है,
आओ हमसब खुशी मनाएँ।
नाचें गाएँ मौज मनाएँ।

धरती माँ की गोद है प्यारी,
बड़ी अनौखी सबसे न्यारी।
इसने कोई न चाहत पाली,
परमारथ की नीति निराली।
बिना चलाए चले सतत् ये,
रचना समझ न पाएँ,नाचें गाएँ...।

लेना-लेना सबको भाया,
पर देने की चाह न आई।
जो देने में खुशी मिली है,
वाणी उसको कह न पाई।
आओ मांग-मांग को त्यागें,
कुछ तो जगती को दे जाएँ,नाचें गाएँ...। 

हरी-भरी इस मस्त धरा पर,
जो भी आता खुश हो जाता।
मेरा - तेरा, तेरा - मेरा,
है केवल काया का नाता।
अहंकार की छोड़ चदरिया,
चलो चले मानुष बन जाएँ।
नाचें गाएँ मौज मनाएँ।

ये जीवन का बीज मंत्र है,
आओ हमसब खुशी मनाएँ।

नाचें गाएँ मौज मनाएँ।


डॅा.मोहन तिवारी ‘आनंद’
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