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'मन' हाइकु : भावार्थ

१० वीं कक्षा हिंदी लोकभारती 
(हाइकु) 
विकास परिहार 
प्रस्तुत आलेख संपादन एवं हाइकु 'मन' का भावार्थ 
श्री. मच्छिंद्र भिसे 
हाइकु विधा का परिचय 
          हिंदी साहित्य की अनेकानेक विधाओं में 'हाइकु' नवीनतम विधा है। हाइकु मूलत: जापानी साहित्य की प्रमुख विधा है। आज हिंदी साहित्य में हाइकु की भरपूर चर्चा हो रही है। हिंदी में हाइकु खूब लिखे जा रहे हैं और अनेक पत्र-पत्रिकाएँ इनका प्रकाशन कर रहे हैं। निरंतर हाइकु संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। यदि यह कहा जाए कि वर्तमान की सबसे चर्चित विधा के रूप में हाइकु स्थान लेता जा रहा है तो अत्युक्ति न होगी। 
हाइकु को काव्य-विधा के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की मात्सुओ बाशो (१६४४-१६९४) ने। बाशो के हाथों सँवरकर हाइकु १७वीं शताब्दी में जीवन के दर्शन से अनुप्राणित होकर जापानी कविता की युग-धारा के रूप में प्रस्फुटित हुआ। आज हाइकु जापानी साहित्य की सीमाओं को लाँघकर विश्व-साहित्य की निधि बन चुका है। 
        हाइकु अनुभूति के चरम क्षण की कविता है। सौंदर्यानुभूति अथवा भावानुभूति के चरम क्षण की अवस्था में विचार, चिंतन और निष्कर्ष आदि प्रक्रियाओं का भेद मिट जाता है। यह अनुभूत क्षण प्रत्येक कला के लिए अनिवार्य है। अनुभूति का यह चरम क्षण प्रत्येक हाइकु कवि का लक्ष्य होता है। इस क्षण की जो अनुगूँज हमारी चेतना में उभरती है, उसे जिसने शब्दों में उतार दिया, वह एक सफल हाइकु की रचना में समर्थ हुआ। बाशो ने कहा है, "जिसने जीवन में तीन से पाँच हाइकु रच डाले, वह हाइकु कवि है। जिसने दस हाइकु की रचना कर डाली, वह महाकवि है।" 
         हाइकु सत्रह (१७) अक्षर में लिखी जाने वाली सबसे छोटी कविता है। इसमें तीन पंक्तियाँ रहती हैं। प्रथम पंक्ति में ५ अक्षर, दूसरी में ७ और तीसरी में ५ अक्षर रहते हैं। संयुक्त अक्षर को एक अक्षर गिना जाता है, जैसे 'सुगन्ध' में तीन अक्षर हैं - सु-१, ग-१, न्ध-१) तीनों वाक्य अलग-अलग होने चाहिए। अर्थात एक ही वाक्य को ५,७,५ के क्रम में तोड़कर नहीं लिखना है। बल्कि तीन पूर्ण पंक्तियाँ हों। 
        अनेक हाइकुकार एक ही वाक्य को ५-७-५ वर्ण क्रम में तोड़कर कुछ भी लिख देते हैं और उसे हाइकु कहने लगते हैं। यह सरासर ग़लत है, और हाइकु के नाम पर स्वयं को छलावे में रखना मात्र है। अनेक पत्रिकाएँ ऐसे हाइकुओं को प्रकाशित कर रही हैं। यह इसलिए कि इन पत्रिकाओं के संपादकों को हाइकु की समझ न होने के कारण ऐसा हो रहा है। इससे हाइकु कविता को तो हानि हो ही रही है साथ ही जो अच्छे हाइकु लिख सकते हैं, वे भी काफ़ी समय तक भ्रमित होते रहते हैं। 
        हाइकु कविता में ५-७-५ का अनुशासन तो रखना ही है, क्योंकि यह नियम शिथिल कर देने से छंद की दृष्टि से अराजकता की स्थिति आ जाएगी। कोई कुछ भी लिखेगा और उसे हाइकु कहने लगेगा। वैसे भी हिंदी में इतने छंद प्रचलित हैं, यदि ५-७-५ में नहीं लिख सकते तो फिर मुक्त छंद में अपनी बात कहिए, क्षणिका के रूप में कहिए उसे 'हाइकु' ही क्यों कहना चाहते हैं? अर्थात हिंदी हाइकु में ५-७-५ वर्ण का पालन होता रहना चाहिए यही हाइकु के हित में हैं। 
         अब ५-७-५ वर्ण के अनुशासन का पूरी तरह से पालन किया और कर रहे हैं, परंतु मात्र ५-७-५ वर्णों में कुछ भी ऊल-जलूल कह देने को क्या हाइकु कहा जा सकता है? साहित्य की थोड़ी-सी भी समझ रखने वाला यह जानता है कि किसी भी विधा में लिखी गई कविता की पहली और अनिवार्य शर्त उसमें 'कविता' का होना है। यदि उसमें से कविता ग़ायब है और छंद पूरी तरह से सुरक्षित है तो भला वह छंद किस काम का। 
मन 
(हाइकु पद्य)
रचना : विकास परिहार 
भावार्थ लेखन : श्री. मच्छिंद्र भिसे 

लेखक परिचय 
         जन्म- ४ अगस्त १९८३ को मध्य प्रदेश के गुना जिले के राघोगढ़ कस्बे में जन्म। सन २००० से सन २००६ तक भारतीय वायु सेना को अपनी सेवाएँ दीं। फिर पत्रकारिता की समर भूमि मे उतरने के बाद रेडियो से जुड़े। साथ ही साथ साहित्य मे विशेष रुचि है और नाट्य गतिविधियों से भी जुड़े हुए हैं। शिक्षा- माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविध्यालय भोपाल से पत्रकारिता विषय में स्नातक।
पद्य प्रस्ताविक 
          कक्षा १० वीं लोकभारती पाठ्यपुस्तक में आयी नई साहित्य विधा 'हाइकु' का सभी ने स्वागत किया है। उपर्युक्त विवेचन से आप सभी को हाइकु विधा का परिचय और इसके लेखन संबंधी की सभी समस्याओं का समाधान हुआ ही होगा, इसमें कोई दो राय नहीं होगी। एक और बात कि विकास परिहार जी के हाइकु मुक्तशैली में रचे होने के कारन गेयता-काव्य छंद से परे है। परंतु भाव की दृष्टि से यह हाइकु बहुत बढ़िया ही है। 
          हाइकु एक ऐसी विधा हैं जिसमें भावों को अधिक महत्त्व देकर किसी एक बात को कम-से-कम शब्दों में व्यक्त करने की कला है। कवी ने अपने भाव एवं विचारों को व्यक्त करने की सफल कोशिश की है। 'मन' इस शीर्षक में हाइकुकार विकास परिहार जी ने जीवन के कई जीवन मूल्य, आदर्श, प्रकृति वैभव, जीवनानुभव, यथार्थता को व्यक्त करने की कोशिश की है। जो हमें अपने जीवनानुभव के साथ जोड़ने के लिए एवं सोचने के लिए बाध्य करते है। प्रकृति एवं सामाजिक घटकों के माध्यम से प्रकृति वर्णन के साथ व्यक्तित्व विकास के लिए प्रेरित करनेवाली यह कृति है। 

'मन' हाइकु के भावार्थ
१.
घना अँधेरा,
चमकता प्रकाश, 
और अधिक।  
      जिस तरह शाम ढलते ही निशा अँधेरे से घिर जाती है और अंधकार का अधिराज्य निर्माण होता है। ऐसे वक्त कभी-कभी एखाद दीप या जुगनू चमककर अँधेरे को छेद देने की कोशिश करता है तब वह अंधकार में सामान्य से और भी अधिक चमकता है। उसी प्रकार हर मनुष्य के जीवन में अनगिनत अंधकार (विपत्तियाँ) होता है, परंतु जो मनुष्य इस अधंकार को छेद देने की ताकद रखता है वह मनुष्य प्राणी जीवन के अंधकार में भी और चमकेगा तथा श्रेष्ठत्व प्राप्त करेगा। बस उसमें निडरता और हौसला चाहिए। 
२.
करते जाओ,
पाने की मत सोचो, 
जीवन सारा। 
      संस्कृत के 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनं' इस सुवचन के अनुसार ही परिहार जी ने जीवन का सही सार बताने की कोशिश की है। हमें अपने जीवन में कर्मरत रहकर क्रिया-कलाप करते रहना चाहिए।  फल कभी-न-कभी मिल ही जाएगा। यदि फल के बारे में सोचते रहे तो कर्म और जीवन का आनंद गवाँ बैठेंगे। तो बस काम करते जाओ, फल तो अपने - आप मिल जाएगा। किसी ने सही कहा है - 'काम करेंगे-काम करेंगे, जग में हम कुछ नाम करेंगे।'
३.
जीवन नैया,
मँझधार में डोले,
संभाले कौन। 
        माना कि यह दुनिया असीम समुंदर है तो  हर मनुष्य प्राणी का जीवन उस समुंदर में चल पड़ी नैया (नाव) है। जब अपना जीवन-यापन करते हैं तो संसार में अनगिनत बाधाएँ समुंदर के तूफान की भाँति आएगी और कमजोर नाव को जिस तरह निगल  जाता है उसी तरह तुम्हारे जीवन को भी निगल जाएगा। अर्थात मनुष्य का जीवन समाप्त होगा।  अब हर एक को समझना चाहिए कि दुनिया में अपने जीवन की बागडौर खुद को ही संभालनी होगी। अपनी जिंदगी में कितने ही तूफान क्यों न आए, अपनी नैया किनारे (मोक्ष अथवा सफलता के) पार लगानी ही होगी। यहाँ कोई आपकी मदद करनेवाला नहीं होगा ? हाइकुकार ने वही सवाल पूछा है - तुम्हारी जीवन नैया कौन संभालेगा ?
४.
रंग-बिरंगे,
रंग-संग लेकर,
आया फागुन। 
        इस हाइकु में प्रकृति के बदलाव का वर्णन करते हुए फागुन माह के दिन कुदरत में बिखरे रंगों की ओर निर्देशित करते हुए फागुन माह का विशेष महत्त्व, फूलों को लेकर प्रतिपादित किया है। (टिपण्णी-अध्यापक विस्तारित रूप से फागुन की जानकारी से छात्रों को अवगत कराए। )
५.
काँटों के बीच,
खिलखिलाता फूल,
देता प्रेरणा। 
      प्रस्तुत हाइकु में जीवन में संघर्ष एवं समस्याओं का महत्त्व प्रतिपादित करते हैं । जैसे गुलाब का फूल काँटों में भी रहकर खिलता है तो अधिक सुंदर तो लगता है साथ ही अपनी सुगंध चारों ओर फैलाता भी है। इसी तरह को मनुष्य को अपने जीवन में आयीं बाधाओं (काटों) को सहजता से स्वीकार कर आगे बढ़ना चाहिए। तभी हम अपने जीवन को सुंदर और कार्य से सुगंधित कर सकते है, जो आगे जाकर किसी के लिए प्रेरणादायी बन जाएगा। जैसे - 'रुकनेवाला पानी सड़ता, रुकनेवाला पहिया डाटा, रुकनेवाली कलम न चलती और विशेष बात-रुकनेवाली घड़ी न चलती।' समस्याओं को पहचानकर सामना करें। 
६.
भीतरी कुंठा,
आँखों के द्वार से,
आई बाहर। 
       कहा जाता है कि मनुष्य नहीं उसकी आँखें और चेहरा बोलता है। जब मनुष्य खुश होता है तो चेहरे पर अनोखी चमक दिखाई देती है उसी तरह मनुष्य के जीवन की निराशा जन्य अतृप्ति की भावनाएँ (कुंठा) उसके चेहरे पर एवं आँखों में उतरती है। उस मनुष्य का जीवन कितनी निराशा से भरा है, इसका पता चलता है। ऐसे वक्त उन्हें प्रेरित कर जीवन की आदर्शता से अवगत करे। महत्वपूर्ण बात यह है कि हर एक को मनुष्य के चेहरे तथा आँखे पढ़नी आनी चाहिए। 
७.
खारे जल से,
धूल गए विषाद,
मन पावन। 
     जो मनुष्य गलती करता है, उसे तो चोट पहुँचनी ही है। धरती के सभी मनुष्यों का स्वभाव एक जैसा नहीं होता। जो समझदार, अपने जीवन के प्रति आस्था, कर्म के प्रति निष्ठा रखनेवाले अच्छे काम करते रहते हैं परंतु भूल से या नासमझी से गलती हो जाती है और मन में असंतोष एवं रिश्तों में दूरता आ जाती है। परंतु अपनी भलाई चाहनेवाले (अभिभावक, गुरुजन) आपको कड़वी बातें (खारा जल) जो हमारे हित में होती है, वे करते हैं। जब सही और गलत का फर्क हमारी समझ में आ जाता हैं तो मन के सारे दुःख (विषाद, निराशा) दूर हो जाते हैं और हमारा मन, सोच एवं व्यवहार में पवित्रता आ जाती है। हम सभी को याद रखना होगा कि अपनी भलाई के लिए की कड़वी बातें हमेशा मीठी होती हैं। 
८.
मृत्यु को जीना,
जीवन विष पीना,
है जिजीविषा। 
       मनुष्य को इस बात को समझना होगा कि जीवन जहर (अनगिनत बाधाओं एवं समस्याओं) से भरा है और इस जहर को पीकर उसे अमृत में परावर्तित कर जीवन को बेहतर बनाना ही जिंदगी है और बेहतर बनाएँगे।  यह जीने का मकसद और आकांक्षा होनी चाहिए। मृत्यु जिस प्रकार अंतिम सत्य कहा जाता है तो इसे ही जिंदगी बनाकर जीने का जज्बा रखना होगा। तभी जीवन सफल हो जाएगा। 
९.
मन की पीड़ा,
छाई बन बादल,
बरसी आँखें। 
      मनुष्य स्वभाव की विशेषताएँ बताते हुए इस हाइकू में कहा है कि मनुष्य का मन / सोच जब भी वेदना, कठिनाई (पीड़ा) आदि महसूस करती है तो स्वाभाविक उसकी आँखों से पानी (आँसू ) बरसता है। हमें मनुष्य के दुःख से दुखी और सुख से सुखी होना चाहिए। परंतु हमें दूसरों के दुःख दूर करने की कोशिश हरहाल करनी चाहिए। (टिपण्णी- इसी कविता की हाइकु क्रमांक ६ के समान ही इसके भाव प्रकट होते हैं।)
१०.
चलती साथ,
पटरियाँ रेल की,
फिर भी मौन। 
         मनुष्य जीवन में सुख और दुःख रेल की पटरी की तरह होते हैं। रेल की पटरिया साथ में चलती है परंतु कभी एक नहीं होती। और जहाँ होती है वहाँ रेल नहीं होती। उसी तरह मनुष्य के जीवन सुख-दुःख बराबर साथ-साथ चलते है पर एक नहीं होते और जहाँ होते हैं वहाँ उसके अस्तित्व पर आशंका उपस्थित की जाती है। जैसे नदी के दो तीर। कभी एक नहीं होते जब पानी सुख जाता है तो उसके दो तीर रहते ही नहीं और उसे नदी को नदी नहीं कहा जाएगा। नाम की नदी रहेगी पर उसके अस्तित्व पर आशंका उठती है। मनुष्य को सुख-दुःख को समान रूप में जानकर स्वीकार करें और जीवन जिए। 
११.
सितारे छिपे,
बादलों की ओट में,
सुना आकाश। 
         अपने जीवन की खुशियों को अनोखे ढंग से व्यक्त करने की सफल कोशिश इस हाइकु में की है। आसमान (जीवन), सितारे (सुख / खुशियाँ) और बादल (परदा / बाधा) के रूपकों में जीवन की अहम बात बताने की कोशिश की है।  परिहार जी कहते है कि जीवन रूपी आकाश पर जब खुशियों के तारे चमकते है तो जीवन आनंद अवर्णनीय होता है परंतु हर सुख क्षणिक होता है उसके ऊपर दुःख के बादल छा जाते हैं तो जीवन निराशा से घिरकर सुना आकाश की भाँति बन जाता है। जिसके चलते मन उद्विग्न हो उठता है। हमें कोशिश करनी होगी की दुःख का पर्दा (ओट) हमेशा के लिए हट जाए। 
१२. 
तुमने दिए,
जिन गीतों को स्वर,
हुए अमर। 
          अपने जीवन में अपने परिजन, हितचिंतक, स्नेही एवं अन्य प्रिय व्यक्तियों का होना अत्यंत आवश्यक होता है। इनके बगैर कोई भी मनुष्य अपना जीवन सफलतापूर्वक नहीं जी सकता। उन्हीं की सहायता से हम अपने जीवन को एक संबल प्रदान करते है। ऐसे लोगो के प्रति हमारे मन में कृतज्ञता के भाव होने चाहिए और उन्हें भूलना भी नहीं चाहिए। उन्हीं लोगों के साथ बीती-बिताई बातें, जीवन संघर्ष अपने जीवन के अमर गीत बन जाते है। इस हाइकु में अच्छे लोगो के साथ को अपने जीवन के गीतों के स्वर कहा गया है। 
१३.
सागर में भी,
रहकर मछली,
प्यासी ही रही। 
     प्रस्तुत हाइकु के माध्यम से हाइकुकार जीवन की उच्च बात को रखते है। वे कहते है कि पानी में रहनेवाली 'मछली' जिसका जीवन पानी है, वह समुंदर में रहती तो है परंतु खारा पानी पी नहीं सकती। उसे मीठे पानी की तलाश में समुंदर की गहराई तक जाना होगा। उसी तरह मनुष्य का जीवन उस खारे समुंदर की तरह होता है। सुख तो है परंतु पा नहीं सकते, उसे ढूंढने के लिए दुःख की गहराई तक जाना होगा अन्यथा सुख के लिए प्यासे ही रहोगे। उसी तरह मनुष्य की तृष्णा (आकांक्षाएँ) कभी मिटती नहीं। सोच-समझकर जिंदगी के खारे समुंदर में जीना सीखना होगा। 

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लेखन एवं प्रस्तुति
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श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 
अध्यापक 
सदस्य, सातारा जिला हिंदी अध्यापक मंडल, सातारा।  
ग्राम भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)
चलित : ९७३०४९१९५२ / ९५४५८४००६३
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3 comments:

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