इस ब्लॉग पर सभी हिंदी विषय अध्ययनार्थी एवं हिंदी विषय अध्यापकों का हार्दिक स्वागत!!! मच्छिंद्र भिसे (हिंदी विषय शिक्षक, कवि, संपादक)

Saturday 29 July 2017

शुभ समाचार


दैनिक ऐक्य 
तिथि २९ जुलाई २०१७ 
पन्ना क्रमांक २ 

Wednesday 19 July 2017

ज्ञानपीठ पुरस्कार

वर्ष – ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार
1965 (प्रथम)– जी शंकर कुरुप (मलयालम)
1966 (द्वितीय)– ताराशंकर बंधोपाध्याय (बांग्ला)
1967 (तृतीय)– (1) के.वी. पुत्तपा (कन्नड़) एवं (2) उमाशंकर जोशी (गुजराती)
1968 (चतु​र्थ)– सुमित्रानंदन पंत (हिन्दी)  चिदंबरा
1969 (5वाँ)– फ़िराक गोरखपुरी (उर्दू)
1970 (6वाँ)– विश्वनाथ सत्यनारायण (तेलुगु)
1971 (7वाँ)– विष्णु डे (बांग्ला)
1972 (8वाँ)– रामधारी सिंह दिनकर (हिन्दी)  उर्वशी
1973 (9वाँ)– (1) दत्तात्रेय रामचंद्र बेन्द्रे (कन्नड़) एवं (2) गोपीनाथ महान्ती (ओड़िया)
1974 (10वाँ)– विष्णु सखा खांडेकर (मराठी)
1975 (11वाँ)– पी.वी. अकिलानंदम (तमिल)
1976 (12वाँ)– आशापूर्णा देवी (बांग्ला)
1977 (13वाँ)– के. शिवराम कारंत (कन्नड़)
1978 (14वाँ)– एच. एस. अज्ञेय (हिन्दी) कितनी नावों में कितनी बार
1979 (15वाँ)– बिरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य (असमिया)
1980 (16वाँ)– एस.के. पोट्टेकट  (मलयालम)
1981 (17वाँ)– अमृता प्रीतम (पंजाबी)
1982 (18वाँ)– महादेवी वर्मा (हिन्दी)  यामा
1983 (19वाँ)– मस्ती वेंकटेश अयंगर (कन्नड़)
1984 (20वाँ)– तक्षी शिवशंकरा पिल्लई (मलयालम)
1985 (21वाँ)– पन्नालाल पटेल (गुजराती)
1986 (22वाँ)– सच्चिदानंद राउतराय (ओड़िया)
1987 (23वाँ)– विष्णु वामन शिरवाडकर कुसुमाग्रज (मराठी)
1988 (24वाँ)– डॉ. सी नारायण रेड्डी (तेलुगु)
1989 (25वाँ)– कुर्तुल एन. हैदर (उर्दू)
1990 (26वाँ)– वी.के.गोकक (कन्नड़)
1991 (27वाँ)– सुभाष मुखोपाध्याय (बांग्ला)
1992 (28वाँ)– नरेश मेहता (हिन्दी) 
1993 (29वाँ)– सीताकांत महापात्र (ओड़िया)
1994 (30वाँ)– यू.आर. अनंतमूर्ति (कन्नड़)
1995 (31वाँ)– एम.टी. वासुदेव नायर (मलयालम)
1996 (32वाँ)– महाश्वेता देवी (बांग्ला)
1997 (33वाँ)– अली सरदार जाफरी (उर्दू)
1998 (34वाँ)– गिरीश कर्नाड (कन्नड़)
1999 (35वाँ)– (1) निर्मल वर्मा (हिन्दी) एवं (2) गुरदयाल सिंह (पंजाबी)
2000 (36वाँ)– इंदिरा गोस्वामी (असमिया)
2001 (37वाँ)– राजेन्द्र केशवलाल शाह (गुजराती)
2002 (38वाँ)– दण्डपाणी जयकान्तन (तमिल)
2003 (39वाँ)– विंदा करंदीकर (मराठी)
2004 (40वाँ)– रहमान राही (कश्मीरी)
2005 (41वाँ)– कुँवर नारायण (हिन्दी)
2006 (42वाँ)– (1) रवीन्द्र केलकर (कोंकणी) एवं (2) सत्यव्रत शास्त्री (संस्कृत)
2007 (43वाँ)– ओ.एन.वी. कुरुप (मलयालम)
2008 (44वाँ)– अखलाक मुहम्मद खान शहरयार (उर्दू)
2009 (45वाँ)– अमरकान्त व श्रीलाल शुक्ल (हिन्दी)
2010 (46वाँ)– चन्द्रशेखर कम्बार (कन्नड)
2011 (47वाँ)– प्रतिभा राय (ओड़िया)
2012 (48वाँ)– रावुरी भारद्वाज (तेलुगू)
2013 (49वाँ)– केदारनाथ सिंह (दोनों हिन्दी)
2014 (50वाँ)– भालचन्द्र नेमाड़े (मराठी)
2014 (51वाँ)– रघुवीर चौधरी (गुजराती)

Tuesday 11 July 2017

ज्ञानपीठ पुरस्कार श्रृंखला - सुमित्रानंदन पंत - १९६८

सुमित्रानंदन पंत  
सुमित्रानंदन पंत (अंग्रेज़ीSumitranandan Pant, जन्म: 20 मई 1900 - मृत्यु: 28 दिसंबर1977हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार स्तंभों में से एक हैं। सुमित्रानंदन पंत नये युग के प्रवर्तक के रूप में आधुनिक हिन्दी साहित्य में उदित हुए। सुमित्रानंदन पंत ऐसे साहित्यकारों में गिने जाते हैं, जिनका प्रकृति चित्रण समकालीन कवियों में सबसे बेहतरीन था। आकर्षक व्यक्तित्व के धनी सुमित्रानंदन पंत के बारे में साहित्यकार राजेन्द्र यादव कहते हैं कि 'पंत अंग्रेज़ी के रूमानी कवियों जैसी वेशभूषा में रहकर प्रकृति केन्द्रित साहित्य लिखते थे।' जन्म के महज छह घंटे के भीतर उन्होंने अपनी माँ को खो दिया। पंत लोगों से बहुत जल्द प्रभावित हो जाते थे। पंत ने महात्मा गाँधी और कार्ल मार्क्‍स से प्रभावित होकर उन पर रचनाएँ लिख डालीं। हिंदी साहित्य केविलियम वर्ड्सवर्थ कहे जाने वाले इस कवि ने महानायक अमिताभ बच्चन को ‘अमिताभ’ नाम दिया था। पद्मभूषणज्ञानपीठ पुरस्कार और साहित्य अकादमी पुरस्कारों से नवाजे जा चुके पंत की रचनाओं में समाज के यथार्थ के साथ-साथ प्रकृति और मनुष्य की सत्ता के बीच टकराव भी होता था। हरिवंश राय ‘बच्चन’ और श्री अरविंदो के साथ उनकी ज़िंदगी के अच्छे दिन गुजरे। आधी सदी से भी अधिक लंबे उनके रचनाकाल में आधुनिक हिंदी कविता का एक पूरा युग समाया हुआ है।




जीवन परिचय
सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई 1900 में कौसानीउत्तराखण्डभारत में हुआ था। जन्म के छह घंटे बाद ही माँ को क्रूर मृत्यु ने छीन लिया। शिशु को उसकी दादी ने पाला पोसा। शिशु का नाम रखा गया गुसाईं दत्त। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी के सुकुमार कवि पंत की प्रारंभिक शिक्षा कौसानीगांव के स्कूल में हुई, फिर वह वाराणसी आ गए और 'जयनारायण हाईस्कूल' में शिक्षा पाई, इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद में 'म्योर सेंट्रल कॉलेज' में प्रवेश लिया, पर इंटरमीडिएट की परीक्षा में बैठने से पहले ही 1921 में असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए।
प्रारम्भिक जीवन
कवि के बचपन का नाम 'गुसाईं दत्त' था। स्लेटी छतों वाले पहाड़ी घर, आंगन के सामने आडू, खुबानी के पेड़, पक्षियों का कलरव, सर्पिल पगडण्डियां, बांज, बुरांश व चीड़ के पेड़ों की बयार व नीचे दूर दूर तक मखमली कालीन सी पसरी कत्यूर घाटी व उसके उपर हिमालय के उत्तंग शिखरों और दादी से सुनी कहानियों व शाम के समय सुनायी देने वाली आरती की स्वर लहरियों ने गुसाईं दत्त को बचपन से ही कवि हृदय बना दिया था। क्योंकि जन्म के छ: घण्टे बाद ही इनकी माँ का निधन हो गया था, इसीलिए प्रकृति की यही रमणीयता इनकी माँ बन गयी। प्रकृति के इसी ममतामयी छांव में बालक गुसाईं दत्त धीरे- धीरे यहां के सौन्दर्य को शब्दों के माध्यम से काग़ज़ में उकेरने लगा। पिता 'गंगादत्त' उस समय कौसानी चाय बग़ीचे के मैनेजर थे। उनके भाई संस्कृत व अंग्रेज़ी के अच्छे जानकार थे, जो हिन्दी व कुमाँऊनी में कविताएं भी लिखा करते थे। यदाकदा जब उनके भाई अपनी पत्नी को मधुर कंठ से कविताएं सुनाया करते तो बालक गुसाईं दत्त किवाड़ की ओट में चुपचाप सुनता रहता और उसी तरह के शब्दों की तुकबन्दी कर कविता लिखने का प्रयास करता। बालक गुसाईं दत्त की प्राइमरी तक की शिक्षा कौसानी के 'वर्नाक्यूलर स्कूल' में हुई। इनके कविता पाठ से मुग्ध होकर स्कूल इंसपैक्टर ने इन्हें उपहार में एक पुस्तक दी थी। ग्यारह साल की उम्र में इन्हें पढा़ई के लिये अल्मोडा़ के 'गवर्नमेंट हाईस्कूल' में भेज दिया गया। कौसानी के सौन्दर्य व एकान्तता के अभाव की पूर्ति अब नगरीय सुख वैभव से होने लगी। अल्मोडा़ की ख़ास संस्कृति व वहां के समाज ने गुसाईं दत्त को अन्दर तक प्रभावित कर दिया। सबसे पहले उनका ध्यान अपने नाम पर गया। और उन्होंने लक्ष्मण के चरित्र को आदर्श मानकर अपना नाम गुसाईं दत्त से बदल कर 'सुमित्रानंदन' कर लिया। कुछ समय बाद नेपोलियन के युवावस्था के चित्र से प्रभावित होकर अपने लम्बे व घुंघराले बाल रख लिये।
साहित्यिक परिचय
अल्मोड़ा में तब कई साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियां होती रहती थीं जिसमें पंत अक्सर भाग लेते रहते। स्वामी सत्यदेव जी के प्रयासों से नगर में ‘शुद्ध साहित्य समिति‘ नाम से एक पुस्तकालय चलता था। इस पुस्तकालय से पंत जी को उच्च कोटि के विद्वानों का साहित्य पढ़ने को मिलता था। कौसानी में साहित्य के प्रति पंत जी में जो अनुराग पैदा हुआ वह यहां के साहित्यिक वातावरण में अब अंकुरित होने लगा। कविता का प्रयोग वे सगे सम्बन्धियों को पत्र लिखने में करने लगे। शुरुआती दौर में उन्होंने 'बागेश्वर के मेले', 'वकीलों के धनलोलुप स्वभाव' व 'तम्बाकू का धुंआ' जैसी कुछ छुटपुट कविताएं लिखी। आठवीं कक्षा के दौरान ही उनका परिचय प्रख्यात नाटककार गोविन्द बल्लभ पंत, श्यामाचरण दत्त पंत, इलाचन्द्र जोशी व हेमचन्द्र जोशी से हो गया था। अल्मोड़ा से तब हस्तलिखित पत्रिका ‘सुधाकर‘ व ‘अल्मोड़ा अखबार‘ नामक पत्र निकलता था जिसमें वे कविताएं लिखते रहते। अल्मोड़ा में पंत जी के घर के ठीक उपर स्थित गिरजाघर की घण्टियों की आवाज़ उन्हें अत्यधिक सम्मोहित करती थीं। अक़्सर प्रत्येक रविवार को वे इस पर एक कविता लिखते। ‘गिरजे का घण्टा‘ शीर्षक से उनकी यह कविता सम्भवतः पहली रचना है-

नभ की उस नीली चुप्पी पर घण्टा है एक टंगा सुन्दर
जो घड़ी घड़ी मन के भीतर कुछ कहता रहता बज बज कर

दुबले पतले व सुन्दर काया के कारण पंत जी को स्कूल के नाटकों में अधिकतर स्त्री पात्रों का अभिनय करने को मिलता। 1916 में जब वे जाड़ों की छुट्टियों में कौसानी गये तो उन्होंने ‘हार‘ शीर्षक से 200 पृष्ठों का 'एक खिलौना' उपन्यास लिख डाला। जिसमें उनके किशोर मन की कल्पना के नायक नायिकाओं व अन्य पात्रों की मौजूदगी थी। कवि पंत का किशोर कवि जीवन कौसानी व अल्मोड़ा में ही बीता था। इन दोनों जगहों का वर्णन भी उनकी कविताओं में मिलता है।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
     1921 केअसहयोग आंदोलन में उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया था, पर देश के स्वतंत्रता संग्राम की गंभीरता के प्रति उनका ध्यान 1930 के नमक सत्याग्रह के समय से अधिक केंद्रित होने लगा, इन्हीं दिनों संयोगवश उन्हें कालाकांकर में ग्राम जीवन के अधिक निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। उस ग्राम जीवन की पृष्ठभूमि में जो संवेदन उनके हृदय में अंकित होने लगे, उन्हें वाणी देने का प्रयत्न उन्होंनेयुगवाणी (1938) और ग्राम्या (1940) में किया। यहाँ से उनका काव्य, युग का जीवन-संघर्ष तथा नई चेतना का दर्पण बन जाता है। स्वर्णकिरणतथा उसके बाद की रचनाओं में उन्होंने किसी आध्यात्मिक या दार्शनिक सत्य को वाणी न देकर व्यापक मानवीय सांस्कृतिक तत्त्व को अभिव्यक्ति दी, जिसमें अन्न प्राण, मन आत्मा, आदि मानव-जीवन के सभी स्वरों की चेतना को संयोजित करने का प्रयत्न किया गया।

काव्य एवं साहित्य की साधना
पंतजी संघर्षों के एक लंबे दौर से गुज़रे, जिसके दौरान स्वयं को काव्य एवं साहित्य की साधना में लगाने के लिए उन्होंने अपनी आजीविका सुनिश्चित करने का प्रयास किया। बहुत पहले ही उन्होंने यह समझ लिया था कि उनके जीवन का लक्ष्य और कार्य यदि कोई है, तो वह काव्य साधना ही है। पंत की भाव-चेतना महाकवि रबींद्रनाथ ठाकुरमहात्मा गांधी और श्री अरबिंदो घोष की रचनाओं से प्रभावित हुई। साथ ही कुछ मित्रों ने मार्क्सवाद के अध्ययन की ओर भी उन्हें प्रवृत किया और उसके विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पक्षों को उन्होंने गहराई से देखा व समझा। 1950 में रेडियो विभाग से जुड़ने से उनके जीवन में एक ओर मोड़ आया। सात वर्ष उन्होंने 'हिन्दी चीफ़ प्रोड्यूसर' के पद पर कार्य किया और उसके बाद साहित्य सलाहकार के रूप में कार्यरत रहे।
युग प्रवर्तक कवि
       सुमित्रानंदन पंत आधुनिक हिन्दी साहित्य के एक युग प्रवर्तक कवि हैं। उन्होंने भाषाको निखार और संस्कार देने, उसकी सामर्थ्य को उद्घाटित करने के अतिरिक्त नवीन विचार व भावों की समृद्धि दी। पंत सदा ही अत्यंत सशक्त और ऊर्जावान कवि रहे हैं। सुमित्रानंदन पंत को मुख्यत: प्रकृति का कवि माना जाने लगा। लेकिन पंत वास्तव में मानव-सौंदर्य और आध्यात्मिक चेतना के भी कुशल कवि थे।
रचनाकाल
पंत का पल्लव, ज्योत्सना तथा गुंजन का रचनाकाल काल (1926-33) उनकी सौंदर्य एवं कला-साधना का काल रहा है। वह मुख्यत: भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आदर्शवादिता से अनुप्राणिक थे। किंतु युगांत (1937) तक आते-आते बहिर्जीवन के खिंचाव से उनके भावात्मक दृष्टिकोण में परिवर्तन आए। पन्तजी की रचनाओं का क्षेत्र बहुविध और बहुआयामी है। आपकी रचनाओं सा संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

महाकाव्य
'लोकायतन' कवि सुमित्रानन्दन पन्त का महाकाव्य है। कवि की विचारधारा और लोक-जीवन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता इस रचना में अभिव्यक्त हुई है। इस पर कवि को 'सोवियत रूस' तथा उत्तर प्रदेश शासन से पुरस्कार प्राप्त हुआ है। पंत जी को अपने माता-पिता के प्रति असीम-सम्मान था। इसलिए उन्होंने अपने दो महाकाव्यों में से एक महाकाव्य 'लोकायतन' अपने पूज्य पिता को और दूसरा महाकाव्य 'सत्यकाम' अपनी स्नेहमयी माता को, जो इन्हें जन्म देते ही स्वर्ग सिधार गईं, समर्पित किया है। अपनी माँ सरस्वती देवी को स्मरण करते हुए इन्होंने अपना दूसरा महाकाव्य 'सत्यकाम' जिन शब्दों के साथ उन्हें समर्पित किया है, वे द्रष्टव्य हैं-

मुझे छोड़ अनगढ़ जग में तुम हुई अगोचर,
भाव-देह धर लौटीं माँ की ममता से भर !
वीणा ले कर में, शोभित प्रेरणा-हंस पर,
साध चेतना-तंत्रि रसौ वै सः झंकृत कर
खोल हृदय में भावी के सौन्दर्य दिगंतर !

काव्य-संग्रह
'वीणा', 'पल्लव' तथा 'गुंजन' छायावादी शैली में सौन्दर्य और प्रेम की प्रस्तुति है। 'युगान्त', युगवाणी' तथा 'ग्राम्या' में पन्तजी के प्रगतिवादी और यथार्थपरक भावों का प्रकाशन हुआ है। 'स्वर्ण-किरण', 'स्वर्ण-धूलि', 'युगपथ', 'उत्तरा', 'अतिमा', तथा 'रजत-रश्मि' संग्रहों में अरविन्द-दर्शन का प्रभाव परिलक्षित होता है। इनके अतिरिक्त 'कला और बूढ़ा चाँद' तथा 'चिदम्बरा' भी आपकी सम्मानित रचनाएँ हैं। पन्तजी की अन्तर्दृष्टि तथा संवेदनशीलता ने जहाँ उनके भाव-पक्ष को गहराई और विविधता प्रदान की हैं, वहीं उनकी कल्पना-प्रबलता और अभिव्यक्ति-कौशल ने उनके कला-पक्ष को सँवारा है।

रचनाएँ

चिदंबरा 1958 का प्रकाशन है। इसमें युगवाणी (1937-38) से अतिमा (1948) तक कवि की 10 कृतियों से चुनी हुई 196 कविताएं संकलित हैं। एक लंबी आत्मकथात्मक कविता आत्मिका भी इसमें सम्मिलित है, जो वाणी (1957) से ली गई है। चिदंबरा पंत की काव्य चेतना के द्वितीय उत्थान की परिचायक है। प्रमुख रचनाएं इस प्रकार है:-
कविताएं
·         वीणा(1919)
·         ग्रंथि (1920)
·         पल्लव(1926)
·         गुंजन (1932)
·         युगांत(1937)
·         युगवाणी(1938)
·         ग्राम्या(1940)
·         स्वर्णकिरण(1947)
कविताएं
·         स्वर्णधूलि (1947)
·         उत्तरा (1949)
·         युगपथ (1949)
·         चिदंबरा (1958)
·         कला और बूढ़ा चाँद(1959)
·         लोकायतन (1964)
·         गीतहंस (1969)
कहानियाँ
·         पाँच कहानियाँ (1938)
उपन्यास
·         हार (1960),
आत्मकथात्मक संस्मरण
·         साठ वर्ष : एक रेखांकन (1963)

साहित्यिक विशेषताएँ
      छायावाद को मुख्यतः ‘प्रेरणा का काव्य’ मानने वाले इस कोमल-प्राण कवि ने 'हार' नामक उपन्यास के लेखन से अपनी रचना-यात्रा आरंभ की थी, जो ‘मुक्ताभ’ के प्रणयन तक जारी रही। मुख्यतः कवि-रूप में प्रसिद्ध होने के अलावा ये 'प्रथम कोटि के आलोचक, विचारक और गद्यकार' थे। इन्होंने मुक्तक, लंबी कविता, गद्य-नाटिका, पद्य-नाटिका, रेडियो-रूपक, एकांकीउपन्यासकहानी इत्यादि जैसी विभिन्न विधाओं में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं और लोकायतन तथा सत्यकाम जैसे वृहद महाकाव्य भी लिखे हैं। विधाओं की विविधता की दृष्टि से इनके द्वारा संपादित 'रूपाभ पत्रिका' (सन् 1938 ईस्वी) की संपादकीय टिप्पणियाँ और मधुज्वाल की भावानुवादाश्रित कविताएँ भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। आशय यह कि विभिन्न विधाओं में उपलब्ध इनके विपुल साहित्य को एक नातिदीर्घ रचना-संचयन में प्रस्तुत करना कठिन कार्य है। रचनाओं की विपुलता के साथ ही यह भी लक्ष्य करने योग्य है कि प्रकृति और नारी–सौंदर्य से रचनारंभ करनेवाले पंत जी मानव, सामान्य जन और समग्र मानवता की कल्याण-कामना से सदैव जुड़े रहे। इनकी मान्यता थी कि ‘आने वाला मानव निश्चिय ही न पूर्व का होगा, न पश्चिम का।’ ये सार्वभौम मनुष्यता के विश्वासी थे। अध्यात्म, अंतश्चेतना, प्रेम, समदिक् संचरण इत्यादि जैसा संकल्पनाओं से भावाकुल पंत के लेखन-चिन्तन का केन्द्र-बिन्दु हमेशा ‘लोक’ पक्ष ही रहा, जो लोकायतन के नामकरण से भी संकेतित होता है। पंत-काव्य का तृतीय चरण, जो ‘नवीन सगुण’ के नाम से चर्चित है और जिसे हम शुभैषणा-सदिच्छा का स्वस्ति-काव्य कह सकते हैं, इसी ‘लोक’ के मंगल पर केन्द्रित है।
'
प्रकृति-प्रेमी कवि
           'उच्छास' से लेकर 'गुंजन' तक की कविता का सम्पूर्ण भावपट कवि की सौन्दर्य-चेतना का काल है। सौन्दर्य-सृष्टि के उनके प्रयत्न के मुख्य उपादान हैं- प्रकृति, प्रेम और आत्म-उद्बोधन। अल्मोड़ा की प्राकृतिक सुषमा ने उन्हें बचपन से ही अपनी ओर आकृष्ट किया। ऐसा प्रतीत होता है जैसे माँ की ममता से रहित उनके जीवन में मानो प्रकृति ही उनकी माँ हो। उत्तर प्रदेशके अल्मोड़ा के पर्वतीय अंचल की गोद में पले बढ़े पंत जी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि उस मनोरम वातावरण का इनके व्यक्तित्व पर गंभीर प्रभाव पड़ा। कवि या कलाकार कहां से प्रेरणा ग्रहण करता है इस बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए पंत जी कहते हैं, संभवत: प्रेरणा के स्रोत भीतर न होकर अधिकतर बाहर ही रहते हैं। अपनी काव्य यात्रा में पन्त जी सदैव सौन्दर्य को खोजते नजर आते हें। शब्द, शिल्प, भाव और भाषा के द्वारा कवि पंत प्रकृति और प्रेम के उपादानों से एक अत्यंत सूक्ष्य और हृदयकारी सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं, किंतु उनके शब्द केवल प्रकृति-वर्णन के अंग न होकर एक दूसरे अर्थ की गहरी व्यंजना से संयोजित हैं। उनकी रचनाओं में छायावाद एवं रहस्यवाद का समावेश भी है। साथ ही शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेज़ी कवियों का प्रभाव भी है। मेरे मूक कवि को बाहर लाने का सर्वाधिक श्रेय मेरी जन्मभूमि के उस नैसर्गिक सौन्दर्य को है जिसकी गोद में पलकर मैं बड़ा हुआ जिसने छुटपन से ही मुझे अपने रूपहले एकांत में एकाग्र तन्मयता के रश्मिदोलन में झुलाया, रिझाया तथा कोमल कण्ठ वन-पखियों ने साथ बोलना कुहुकन सिखाया। पंतजी को जन्म के उपरांत ही मातृ-वियोग सहना पड़ा।

भाव पक्ष
       पन्तजी के भाव-पक्ष का एक प्रमुख तत्त्व उनका मनोहारी प्रकृति चित्रण है।कौसानी की सौन्दर्यमयी प्राकृतिक छटा के बीच पन्तजी ने अपनी बाल-कल्पनाओं को रूपायित किया था। प्रकृति के प्रति उनका सहज आकर्षण उनकी रचनाओं के बहुत बड़े भाग को प्रभावित किए हुए है। प्रकृति के विविध आयामों और भंगिमाओं को हम पन्त के काव्य में रूपांकित देखते हैं। वह मानवी-कृता सहेली है, भावोद्दीपिका है, अभिव्यक्ति का आलम्बन है और अलंकृता प्रकृति-वधू भी है। इसके अतिरिक्त प्रकृति कवि पन्त के लिए उपदेशिका और दार्शनिक चिन्तन का आधार भी बनी है। कवि पन्त को सामान्यतया कोमल-कान्त भावनाओं और सौन्दर्य का कवि समझा जाता है किन्तु जीवन के यथार्थों से सामना होने पर कवि में जीवन के प्रति यथार्थपरक और दार्शनिक दृष्टिकोण का विकास होता गया है। सर्वप्रथम पन्त मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित हुए, जिसका प्रभाव उनकी 'युगान्त', 'युगवाणी' आदि रचनाओं में परिलक्षित होता है। गाँधीवाद से भी आप प्रभावित दिखते हैं। 'लोकायतन' में यह प्रभाव विद्यमान है। महर्षि अरविन्द की विचारधारा का भी आप पर गहरा प्रभाव पड़ा। 'गीत-विहग' रचना इसका उदाहरण है। सौन्दर्य और उल्लास के कवि पन्त को जीवन का निराशामय विरूप-पक्ष भी भोगना पड़ा और इसकी प्रतिक्रिया 'परिवर्तन' नामक रचना में दृष्टिगत होती है-

अखिल यौवन के रंग उभार हड्डियों के हिलते कंकाल,
खोलता इधर जन्म लोचन मूँदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण।

पन्तजी के काव्य में मानवतावादी दृष्टि को भी सम्मानित स्थान प्राप्त है। वह मानवीय प्रतिष्ठा और मानव-जाति के भावी विकास में दृढ़ विश्वास रखते हैं। 'द्रुमों की छाया' और 'प्रकृति की माया' को छोड़कर जो पन्त 'बाला के बाल-जाल' में 'लोचन उलझाने' को प्रस्तुत नहीं थे, वही मानव को विधाता की सुन्दरतम कृति स्वीकार करते हैं-
सुन्दर है विहग सुमन सुन्दर, मानव तुम सबसे सुन्दरतम।
वह चाहते हैं कि देश, जाति और वर्गों में विभाजित मनुष्य की केवल एक ही पहचान हो - मानव।

भाषा-शैली
कवि पन्त का भाषा पर असाधारण अधिकार है। भाव और विषय के अनुकूल मार्मिक शब्दावली उनकी लेखनी से सहज प्रवाहित होती है। यद्यपि पन्त की भाषा का एक विशिष्ट स्तर है फिर भी वह विषयानुसार परिवर्तित होती है। पन्तजी के काव्य में एकाधिक शैलियों का प्रयोग हुआ है। प्रकृति-चित्रण में भावात्मक, आलंकारिक तथा दृश्य विधायनी शैली का प्रयोग हुआ है। विचार-प्रधान तथा दार्शनिक विषयों की शैली विचारात्मक एवं विश्लेषणात्मक भी हो गई है। इसके अतिरिक्त प्रतीक-शैली का प्रयोग भी हुआ है। सजीव बिम्ब-विधान तथा ध्वन्यात्मकता भी आपकी रचना-शैली की विशेषताएँ हैं।

अलंकरण
पन्तजी ने परम्परागत एवं नवीन, दोनों ही प्रकार के अलंकारों का भव्यता से प्रयोग किया है। बिम्बों की मौलिकता तथा उपमानों की मार्मिकता हृदयहारिणी है। रूपकउपमा, सांगरूपक, मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय तथा ध्वन्यर्थ-व्यंजना का आकर्षक प्रयोग आपने किया है।

छंद
पन्तजी ने परम्परागत छन्दों के साथ-साथ नवीन छंदों की भी रचना की है। आपने गेयता और ध्वनि-प्रभाव पर ही बल दिया है, मात्राओं और वर्णों के क्रम तथा संख्या पर नहीं। प्रकृति के चितेरे तथा छायावादी कवि के रूप में पन्तजी का स्थान निश्चय ही विशिष्ट है। हिन्दी की लालित्यपूर्ण और संस्कारित खड़ी बोली भी पन्तजी की देन है। पन्तजी विश्व-साहित्य में भी अपना स्थान बना गए हैं।
पुरस्कार
       सुमित्रानंदन पंत को पद्म भूषण (1961) और ज्ञानपीठ पुरस्कार (1968) से सम्मानित किया गया। कला और बूढ़ा चाँद के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार,लोकायतन पर 'सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार' एवं 'चिदंबरा' पर इन्हें 'भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार' प्राप्त हुआ।

संग्रहालय
उत्तराखंड राज्य के कौसानी में महाकवि पंत की जन्म स्थली को सरकारी तौर पर अधिग्रहीत कर उनके नाम पर एक राजकीय संग्रहालय बनाया गया है, जिसकी देखरेख एक स्थानीय व्यक्ति करता है। इस स्थल के प्रवेश द्वार से लगे भवन की छत पर महाकवि की मूर्ति स्थापित है। वर्ष 1990 में स्थापित इस मूर्ति का अनावरण वयोवृद्ध साहित्यकार तथा इतिहासवेत्ता पंडित नित्यनंद मिश्र द्वारा उनके जन्म दिवस 20 मई को किया गया था। महाकवि सुमित्रानंदन पंत का पैत्रक ग्राम यहां से कुछ ही दूरी पर है; परन्तु वह आज भी अनजाना तथा तिरस्कृत है। संग्रहालय में महाकवि द्वारा उपयोग में लायी गयी दैनिक वस्तुएँ यथा शॉल, दीपक, पुस्तकों की अलमारी तथा महाकवि को समर्पित कुछ सम्मान-पत्र, पुस्तकें तथा हस्तलिपि सुरक्षित हैं।
मृत्यु
कौसानी चाय बाग़ान के व्यवस्थापक के परिवार में जन्मे महाकवि सुमित्रानंदन पंत की मृत्यु 28 दिसम्बर1977 को इलाहाबादउत्तर प्रदेश में हुई।



Saturday 8 July 2017

गुरुपौर्णिमा

मेरे सभी ज्ञानदाता, अभिभावक एवं पथप्रदर्शक गुरुजनों को गुरुपौर्णिमा की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ 

**************
        



यह मेरे गुरु एम्. व्यंकटेश्वर जी को सादर समर्पित 


       नमस्कार सभी अध्यापक भाईयों और बहनों, आज गुरु पौर्णिमा हैं। आप सभी को गुरु पौर्णिमा की हार्दीक शुभ कामनाएँ। आज मैं एक ऐसे व्यक्ति का परिचय करने जा रहा हूँ, जिनका अल्प परिचय जनवरी २०१७ के हैदराबाद प्रशिक्षण के दौरान हुआ।

वंदनीय एम्. व्यंकटेश्वर जी
सादर प्रणाम,
    आपका परिचय केंद्रीय हिंदी संस्थान के जनवरी २०१७ के प्रशिक्षण के दौरान हुआ। आपका स्वभाव शिस्तप्रिय, मिलनसार, स्पष्टवक्ता और ज्ञानदाता का हैं । मुझे याद है कि आपकी की एक तासिका में देरी से पहुँचा और आपने मुझे डाँटा था परंतु मध्यान के समय में पास बुलाकर मुझसे प्यार से बातें करके मुझे समझाया। उस डाँट की वजह से मैं आपका बन गया हूँ। मेरे जीवन में एक आदर्श व्यक्ति का सहवास मेरे लिए सौभाग्य की बात हैं। आपको मैंने हिंदी की पढ़ाई के बारे में पूछा तो बताया कि फुरसत के वक्त पढ़ते रहने से ज्ञान में वृद्धि होगी। मैंने इस बात को अपनाया है। 
       सर, मैं आपके मार्गदर्शन से किताबें लेने एक किताब की दूकान में गया था ।  जब मैंने दुकानदार को किताबों की सूची दी तब उसने पूछा कि यह किसने दी है।  मैंने आपका नाम बताया तो वह मुस्कुराते हुए बोला।  श्रीमान आपको जिसने सूची दी हैं ना, मेरी दुकान से भी ज्यादा किताबें तो आपके घर में हैं, और जब कोई भी नई किताब आती है तो आप वह किताब लेकर पढ़ते है। 
      यह बात सुनकर मैं दंग रह गया।  मुझे भी ऐसा लगा कि अध्यापक होने के नाते मेरे छात्रों को देने के लिए पर्याप्त ज्ञान होना आवश्यक हैं और मेरी कोशिश भी यही रहती है। मुझे तो आपसे जो प्रेरणा मिली है जिसने मुझे पढ़ने की प्यास बढ़ा दी है।  
     सर, हम रवि-भारती हाल में हुए विश्व हिंदी दिवस कार्यक्रम को नहीं भूल सकते क्योंकि  आपका पहला परिचय यहीं तो हुआ था और बाद में आप हिंदी संसथान मैं हमें मार्गदर्शन करने आए थे। 
     आपके द्वारा हिंदी साहित्य की विधाएँ तथा हिंदी कहानी का इतिहास इन विषयों का मार्गदर्शन बहुत लाभदायी रहा। 
     सर, आपके ज्ञान प्रसाद के लिए हमेशा लालायित रहूँगा।  आपके द्वारा किये मार्गदर्शन और प्यार के लिए आपके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। 

    आज गुरुपौर्णिमा के दिन आपका शिष्य आपको वंदन करते हुए आपको याद करता हूँ। आप यही यादों की भेंट अपने शिष्य से स्वीकार करेंगे, इसी अभिलाषा के साथ -

श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 
ज्ञानदीप इंग्लिश मीडियम स्कूल, पसरणी 
तहसील - वाई, जिला - सतारा
महाराष्ट्र ४१२ ८०३ 
९७३०४९१९५२   
  

डॉ. एम वेंकटेश्वर जी का परिचय 



  परिचय
जन्म : 12/6/1946, हैदराबाद
व्यवसाय : सेवा निवृत्त, हिंदी प्रोफेसर (उस्मानिया विश्वविद्यालय/अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद)
मातृभाषा : तेलुगु

हिंदी में प्रकाशित साहित्य :


1.   हिंदी उपन्यासों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन
2.   हिंदी उपन्यासों में मनोविकृत पात्र
3.   हिंदी के समकालीन महिला उपन्यासकार
4.   आठवें दशक के हिंदी उपन्यास
5.   प्रयोजनमूलक हिंदी विविध आयाम
6.   जीवन वृन्दावन (अनुवाद)
7.   संकल्य "बच्चन विशेषांक" (संपादन)
8.   समुच्चय – अंक 1 और 2 (सं)
9.   भास्वर भारत (मासिक) (संयुक्त संपादन)
10. "प्लेम" बुल्गारियान साहित्य पत्रिका (सं)


पुरस्कार एवं सम्मान:
सौहार्द्र सम्मान : उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान 2002
बेस्ट टीचर एवार्ड : आंध्र प्रदेश सरकार 2004
बिहार राष्ट्र भाषा पुरस्कार : पटना 2009

हिंदी प्रचार/सेवा :
  1. विगत 40 वर्षों से हिंदी भाषा और साहित्य का अध्ययन/अध्यापन/शोध कार्य में निमग्न
  2. हिंदी भाषा और साहित्य का प्रचार और प्रसार (स्वच्छंद संस्थाओं में, ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों और कालेजों में व्याख्यानों, कार्यशालाओं तथा संगोष्ठियों के माध्यम से भारतीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में)
  3. 100 से अधिक शोध लेख प्रकाशित / आज भी लेखन कार्य जारी। (राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में)
  4. 40 शोध छात्रों का पीएच और एम फिल उपाधियों के लिए शोध निर्देशन।
  5. तीन वर्षों (1996–1999) तक यूरोप के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्यापन तथा हिंदी तथा भारतीय भाषाओं, संस्कृति का अध्यापन, प्रचार, प्रसार) (बुल्गारिया, पोलेंड, ग्रीस, आस्ट्रिया और जर्मनी के विश्वविद्यालयों में व्याख्यान और भारतीय संस्कृति का प्रचार–प्रसार)
  6. 4 अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों तथा अनेकों राष्ट्रीय संगोष्ठियों में प्रतिभागिता।
  7. हिंदी पत्रकारिता से सक्रिय भागीदारी। वर्तमान में "भास्वर भारत" मासिक पत्रिका केसंयुक्त संपादक के रूप में स्वैच्छिक सेवा में निरत।
  8. आंध्र प्रदेश के सुदूर (अहिंदी भाषी) ग्रामीण प्रान्तों में कार्यरत हिंदी अध्यापकों के लिए भाषा शिक्षण संबंधी शिविर, कार्यशालाओं तथा पुनश्चर्या कार्यक्रमों का स्वैच्छिक (सेवा भाव से) आयोजन और मार्गदर्शन के साथ साथ हिंदी भाषा का प्रचार –प्रसार के कार्य में निरंतर मग्न।
  9. देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अतिथि आचार्य के रूप में अस्थाई तौर पर अध्यापन और शोध निर्देशन। (हैदराबाद विवि, काकतीय विवि, वर्धा विवि, कर्नाटक विवि, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा – मद्रास, हैदराबाद, कोचीन धारवाड़) अरुणाचल प्रदेश – राजीव गांधी विवि आदि)
संप्रति :
स्वतंत्र लेखन। हिन्दी, अंग्रेजी एवं तेलुगु साहित्य संबंधी आलोचनात्मक लेख, भारतीय एवं हॉलीवुड सिनेमा में विशेष रुचि। फिल्म समीक्षा लेखन। हिंदी अंग्रेजी और तेलुगु कथा साहित्य का आकलन।
विशेष अभिरुचियाँ :

फोटोग्राफी, यात्रा, अध्ययन(पठन), साहित्यिक-शोध अध्यापन, ड्राइविंग, पत्र- व्यवहार, सिनेमा, संगीत (पाश्चात्य एवं भारतीय), सांस्कृतिक संयोजन आदि।

आलेख
साहित्य और सिनेमा
अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच और सिनेमा के चहेते कलाकार सईद जाफ़री की स्मृति में
अपराजेय कथाशिल्पी शरतचंद्र और देवदास
(देवदास के प्रकाशन के सौ वर्ष के संदर्भ में)
अमेरिकी माफ़िया और अंडरवर्ल्ड पर आधारित उपन्यास: गॉड फ़ादर (The Godfather)
ऑस्कर वाईल्ड कृत महान औपन्यासिक कृति : पिक्चर ऑफ़ डोरिएन ग्रे
इंग्लैंड के महान उपन्यासकार चार्ल्स डिकेंस की अमर कृति "ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स"
खेतिहर समुदायों के विस्थापन की त्रासदी : जॉन स्टाईनबैक की अमर कृति "ग्रेप्स ऑफ़ राथ"
'गॉन विथ द विद' - एक कालजयी उपन्यास और सिनेमा 
चीन के कृषक जीवन की त्रासदी "द गुड अर्थ"
दासप्रथा का प्रथम क्रांतिकारी विद्रोही - ‘स्पार्टाकस’
द्वितीय महायुद्ध में नस्लवादी हिंसा का दस्तावेज़ : शिन्ड्लर्स लिस्ट
फ्रांसीसी राज्य क्रान्ति और यूरोपीय नवजागरण की अंतरकथा : ए टेल ऑफ़ टू सिटीज़ 
टॉलस्टाय की 'अन्ना केरेनिना' : कालजयी उपन्यास और अमर फिल्म
फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की की अमर औपन्यासिक कृति "ब्रदर्स कारामाज़ोव"
"बेन-हर" (BEN-HUR) रोम का साम्राज्यवाद और सूली पर ईसा मसीह का करुण अंत
: साहित्य और सिनेमा 

बोरिस पास्टरनाक की अमर कृति 'डॉ. ज़िवागो' : साहित्य और सिनेमा
भारतीय सिनेमा और रवीन्द्रनाथ टैगोर
भारतीय सिनेमा को तेलुगु फिल्मों का प्रदेय
भारतीय सिनेमा में 'समांतर' और 'नई लहर (न्यू वेव)' सिनेमा का स्वरूप
भूमंडलीकरण और हिन्दी सिनेमा
युद्धबंदी सैनिकों के स्वाभिमान और राष्ट्रप्रेम की अनूठी कहानी : "द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई"
विश्व कथा साहित्य की अनमोल धरोहर "ले मिज़रेबल्स" - साहित्य और सिनेमा
विश्व की महान औपन्यासिक कृति ‘वार एंड पीस‘ (युद्ध और शांति)
शॉर्लट ब्रांटे की अमर कथाकृति : जेन एयर
स्त्री जीवन की त्रासदी "टेस - ऑफ द ड्यूबरविल" 
हिंदी फिल्में और सामाजिक सरोकार
हिंदी सिनेमा के विकास में फ़िल्म निर्माण संस्थाओं की भूमिका भाग - 1
हिंदी सिनेमा के विकास में फ़िल्म निर्माण संस्थाओं की भूमिका भाग - 2
हिंदी सिनेमा में स्त्री विमर्श का स्वरूप
समीक्षा

अनूदित-साहित्य  :
एक राजनैतिक कहानी 
तेलुगु मूल : "ओका राजकीय कथा"
लेखिका : वोल्गा
संस्मरण