कवयित्री परिचय संकलक व भावार्थ
लेखक
श्री.
मच्छिंद्र बापू भिसे
अध्यापक-कवि-सह संपादक
सदस्य-
हिंदी अध्यापक मंडल, सातारा
मोबाईल: 9730491952
/ 9545840063
ई-मेल: machhindra.3585@gmail.com
-०-
संत मीराबाई
(संकलित)
जीवन परिचय:
कृष्णभक्त कवियों में मीराबाई का नाम
सर्वोच्च स्थान पर है। मीरा का जन्म राजस्थान
में मेड़ता कं निकट कुड़की ग्राम के
प्रसिद्ध राज परिवार में 1498
ई। में हुआ था। उनके पिता का
नाम रतनसिंह था। मीरा का विवाह केवल 12 वर्ष की आयु में चितौड़ के राजा
राणा सांगा के पुत्र कुँवर भोजराज के साथ हुआ था। दुर्भाग्यवश विवाह के 7-8
वर्ष बाद ही मीरा पर वैधव्य कै दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा। मीरा के
बचपन में ही उनकी माता का देहांत हो गया था।
मीरा बाल्यकाल से ही कृष्णा भक्ति में लीन
रहती थी, पर पति की मृत्यु के बाद तो मीरा ने अपना सारा जीवन कृष्ण- भक्ति में
ही लगा दिया। वे साधु-संतों के सत्संग में रहने लगीं। शीघ्र ही उनकी ख्याति
दूर-दूर तक फैल गई। राजघराने की एक रानी का साधु - संतो से मिलना-जुलना और कीर्तन
करना उनके परिवार वालों को अच्छा नहीं लगा। उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दी गईं। अंत
में तंग आकर मीरा न मेवाड़ छोड़ दिया और मथुरा-वृंदावन की यात्रा करते हुए द्वारिका
जा पहुँची। वहाँ वे भगवान् रणछोड़ की आराधना में लीन हो गई।
मीरा लौकिक बंधनों से पूर्णत: मुक्त होकर
निश्चित भाव से साधु-संगति और कृष्ण पूजा-उपासना में अपना समय व्यतीत करने लगीं।
ऐसी परिस्थिति में मीरा गा उठीं-
“मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरी न कोई
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।”
लौकिक सुहाग मिटा तो मीरा ने अलौकिक सुहाग पा
लिया। वह तो ‘पग घुँघरूँ बाँध मीरा नाची रे’ की अवस्था में
आ गईं। देवर राणा विक्रमादित्य ने जहर का प्याला भेजा और मीरा उसे -गिरधर का
चरणामृत समझकर पी गई। ऐसा अनुमान है कि मीरा ने 1546 ई।
के आस-पास अपना नश्वर शरीर त्यागा।
रचनाएँ-मीरा ने मुख्यत: स्फुट पदों की ही
रचना की है। ये पद ‘मीराबाई की पदावली’ नाम से संकलित हैं। इस
पदावली से ही कुछ पद छाँटकर लोगों ने ‘राम मूलार’,
‘राग सोरठ संग्रह’, राग गोबिंद’ आदि संकलन चना डाले। सच यही है कि भिन्न-भिन्न रागनियों में गाए जाने
वाली भक्तिपूर्ण ‘पदावली’ मीरा
की प्रामाणिक रचना है।
साहित्यिक विशेषताएँ:
भक्ति- भावना-मीरा की भक्ति मार्धुय भाव की
कृष्णा भक्ति है। इस भक्ति में विनय भावना , वैष्णवी प्रपत्ति, नवधा भक्ति के सभी अंग शामिल हैं। कृष्णा प्रेम में मतवाली मीरा
लोक-लाज, कुल-मर्यादा सव त्यागकर, ढोल बजा-बजाकर भक्ति के राग गाने लगी। वह कहतीं-
“माई गई! मैं तो लिया गोविंदा मोल।
कोई कहै छानै, कोई कहै छुपकै, लियो री बजता ढोल।”
मीरा के लिए राम और कृष्ण के नाम में कोई
अंतर नहीं है। एक स्थल पर वह कहती हैं-
“राम-नाम रस पीजै।”
मनवा! राम-नाम रस पीजें।”
+ + +
“मेरौ मन राम-हि-राम रटै
राम-नाम जप लीजै प्राणी! कोटिक पाप कटै।”
मीरा ने आँसुओं के जल से जो प्रेम-बेल बोई थी।
अब वह फैल गई है और उसमें आनंद- फल लग गए हैं। मीरा के लिए जप - तप, तीर्थ
आदि सब साधन व्यर्थ थे। उनके लिए तो प्रेम- भक्ति ही सार -तत्व है। वे कहती हैं -
“भज मन चरण कँवल अविनासी।
कहा भयौ तीरथ ब्रत कीन्हे, कहा लिए
करवत कासीं।”
मीरा तो अपने साँवरे के रंग में सराबोर हो गई
है--
“मैं तो साँवरे के रंग राँची।
साजि सिंगार बांधि पग घुँघरूँ लोक लाज तजि
नाची।”
कवयित्री की कामना है कि उसके प्रिय कृष्ण
उसकी आँखों में बस जाएँ-
“बसी मेरे नैनन में नंदलाल
मोहनि मूरति साँवरि सूरति नैणां बने बिसाल।
अधर सुधारस मुरली राजति उर बैजंती माल।।”
मीरा के पदों की कड़ियाँ अश्रुकणों से गीली
हैं। सर्वत्र उनकी विरहाकुलता तीव्र भावाभिव्यंजना के साथ प्रकट हुई है। उनकी कसक
प्रेमोन्माद कै रूप में प्रकट होती है। उनका उन्माद तल्लीनता और आत्मसमर्पण की
स्थिति तक पहुँच गया है। प्रकृति की पुकार में उनका दर्द और बढ़ जाता है --
“मतवारो बादर आयै।
हरि को सनेसो कबहु न लायै।।”
मीरा की भक्ति में उद्दामता है, पर
अंधता नहीं। उनकी भक्ति के पद अतिरिक गढ़ भावों के स्पष्ट चित्र हैं। मीरा के पदों
में श्रृगार रस के संयोग और वियोग दोनों पक्ष पाए जाते हैं, पर उनमें विप्रलंभ शृंगार की प्रधानता है। उन्होंने शांत रस के पद भी
रचे हैं। उन्होंने ‘संसार को चहर की बाजी’ कहा है, जो साँझ परे उठ जाती है।
मीरा की भक्ति के सरस-सागर की कोई थाह नहीं
है, जहाँ जब तक चाहो, गोते लगाओ। इसमें
रहस्य-साधना भी समाई हुई है। संतों के सहज योग को भी मीरा ने अपनी भक्ति का सहयोगी
बना लिया था-
“त्रिकुटी महल में बना है झरोखा
तहाँ तै झाँकी लाऊ री।”
कलापक्ष: मीरा के पदों में उनकी अनुभूति के
सहज उच्छ्वास हैं। उन्हें अनुमान भी न था कि उनके ये उच्छ्वास पदों के रूप में काल
के अक्षय भंडार के रूप में संकलित किए जाएँगे। उन्हें अलंकारों के आवरण में भावों
को छिपाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। उनका भावपक्ष इतना सबल है कि कलापक्ष का अभाव
उसके नैसर्गिक सौंदर्य को साकार कर देता है। मीरा का काव्य तीव्र भावानुभूति का
काव्य है, उसमें भाषा के सजाने-सँवारने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
मीरा के पदों की भाषा सरल है। उनकी भाषा में
राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा का प्रयोग मिलता है। कहीं-कहीं गुजराती के शब्द भी आ
गए हैं।
मीरा के काव्य में कई जगह अपने आप उपमा, रूपक,
अतिश्योक्ति, विरोधाभास आदि अलंकार आ गए
हैं- ‘दीपक जोऊँ ज्ञान का’, ‘सील
संतोस को केसर घोली प्रेम-प्रीत पिचकारी’, ‘विरह-समुंद
में छोड़ गया, नेह री नाव चढ़ाव।’ आदि
में अलंकारों का महज प्रयोग दिखाई देता है।
मीरा के पद गीति-काव्य का चरम उत्कर्ष है। ये
पद संगीतज्ञों के कंठहार बने हुए है और आज तक सहृदयों को रससिक्त कर रहे हैं।
गीतिकाव्य में मीरा आज भी अप्रतिम हैं। प्रेमोन्माद, तीव्रता और तन्मयता की
त्रिवेणी का पूरा वेग उनकी रचनाओं में परिलक्षित होता है। “हे री मैं तो प्रेम दीवाणी। मेरी दरद न जाने कोय” की आत्माभिव्यक्ति अपनी तल्लीनता और तन्मयता कै लिए प्रमाणस्वरूप है।
-०-
गिरिधर नागर
संत मीराबाई
(1)
मेरे तो
गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई
जा के सिर
मोर-मुकट, मेरो पति सोई
छांड़ि दयी
कुल की कानि, कहा करिहै कोई?
संतन ढिग
बैठि-बैठि, लोक-लाज खोयी।
अँसुवन जल सींचि- सींचि, प्रेम-बेलि बोयी।
अब त बेलि
फैलि गई, आणंद-फल होयी।।
दूध की
मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोई ।
माखन जब काढि लियो छाछ पिये कोई।
भगत देखि
राजी हुई जगत देखि
रोयी।
दासि ‘मीरा’ लाल गिरधर! तारो अब मोही।।
शब्दार्थ:
गिरिधर-
पर्वत धारण करने वाला, पति सोई- पति-सा होना, छांडी- छोड़ना, कुल- वंश, कानि-
मर्यादा, संतन ढिग- सत्संग, लोक लाज- समाज
मर्यादा/सम्मान, प्रेम-बेलि- प्यार की बेल (लतर, लता), आनंद-फल- ख़ुशी के फल उगना
(पद्य के अनुसार), दधि- दही, मथनियाँ- दही बनाने से पूर्व दूध को जमाना (यहाँ जीवन
को ही मथनियाँ कहना), भगत- साधु-संत, जगत- बुरे विकार में पड़ा संसार, तारो- त्राण
करना/पीड़ा मुक्त करना, मोही- मुझे।
भावार्थ (व्याख्या)
प्रस्तुत पद कृष्णभक्त कवयित्री
मीराबाई द्वारा रचित है। मीराबाई ने श्रीकृष्ण को अपना पति मानकर उनकी भक्ति की
है। इसके लिए उन्होंने किसी की भी परवाह नहीं की। अब तो फल प्राप्ति का समय आ गया
है।मीराबाई कहती हैं- मेरे तो
गिरिधर गोपाल अर्थात् श्रीकृष्ण ही सर्वस्व हैं। ‘अन्य किसी से
मेरा कोई संबंध नहीं है। जिस कृष्ण के सिर पर मोर-मुकुट है, वही मेरा पति है। मैं श्रीकृष्ण को ही अपना पति (रक्षक) मानती हूँ। इस
भक्ति के लिए मैंने अपने माता-पिता, भाई-बंधु आदि सभी को
छोड़ दिया है। मैंने तो अपने वंश-परिवार की मर्यादा का भी त्याग कर दिया है,
अब मेरा कोई कुछ नहीं कर सकता अर्थात् मुझे किसी की चिंता नहीं
है। मैंने तो लोक-लज्जा को
खोकर संतों के निकट बैठना स्वीकार कर लिया है। साधु-संतों के पास बैठने से यदि लोक-लज्जा जाती है तो भले ही चली जाए, मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता। मैंने तो अपनै आँसुओं रूपी जल से प्रभु-प्रेम
रूपी बेल को बोया है। अब तो यह प्रेम बेल फलने-फूलने लगी है और इसमें आनंद रूपी फल
आ रहा है। कवयित्री कहती है कि मैंने दूध की मथनियाँ (जीवन रूपी दूध को प्रभु प्यार से मथने की क्रिया) को
बड़े प्रेम से मथा है। इसमें दही (जीवन)
को मथकर घी (जीवन सार)
तो निकाल लिया और छाछ (विकार)
को छोड़ दिया है अर्थात् सार-तत्व को तो ग्रहण कर लिया और सारहीन अंश को छोड़ दिया
है। मैं तो भक्तों को देखकर प्रसन्न होती हूँ और संसार के रंग-ढंग को देखकर रोती
हूँ अर्थात् दुखी होती हूँ।मीरा अपने प्रभु से प्रार्थना करती है कि मैं तो आपकी
दासी हूँ। आप मुझे इस भवसागर से पार उतारिए।
(2)
हरि बिन कूण गती मेरी।
तुम मेरे प्रतिपाल कहिये मैं रावरी चेरी।
आदि अंत निज नाँव तेरो हीयामें फेरी।
बेर बेर पुकार कहूं प्रभु आरति है तेरी।
यौ संसार बिकार सागर बीच में घेरी।
नाव फाटी प्रभु पाल बाँधो बूड़त है बेरी।
बिरहणि पिवकी बाट जोवै राखल्यो नेरी।
दासि मीरा राम रटत है मैं सरण हूं तेरी।।
तुम मेरे प्रतिपाल कहिये मैं रावरी चेरी।
आदि अंत निज नाँव तेरो हीयामें फेरी।
बेर बेर पुकार कहूं प्रभु आरति है तेरी।
यौ संसार बिकार सागर बीच में घेरी।
नाव फाटी प्रभु पाल बाँधो बूड़त है बेरी।
बिरहणि पिवकी बाट जोवै राखल्यो नेरी।
दासि मीरा राम रटत है मैं सरण हूं तेरी।।
शब्दार्थ
/अर्थ :-
कूण- कौन क्या,
हीयामें फेरी- हृदय में याद करती रहती हूँ (पाठ्यपुस्तक में दुरुस्ती हीमायें ×), यौ- यह, पाल बांधो-
पाल तान लो, बेरी- नाव का बेड़ा,
नेरी- निकट, कूण- कौन, गती- मोक्ष, दशा, प्रतिपाल- पालन करने वाले, रावरी चेरी- तुम्हारी दासी, नाँव- नाम, हीय- हृदय, बेरि-बेरि- बार बार, आरति- आर्ति प्रबल इच्छा उत्कण्ठा, चाह, बिकार- दुःख, बेरी- बेड़ा, नाँव- नाम (नामस्मरण), नाव- नैया, नौका, पिव
की- प्रियतम की,
नेरी-पास।
भावार्थ (व्याख्या)
प्रस्तुत पद
में मीरा जी ने अपने जीवन का सबकुछ श्रीकृष्ण को मान लिया है। वह कहती है कि इस
संसार में मेरी एक ही गति (लक्ष्य) है, वह है हरी में समा जाना। मीरा जी हरी का
दास्यत्व स्वीकार करके वह प्रभु को कहती है कि हे प्रभु तुम ही मेरे पालन करने
वाले हो और मैं तुम्हारे चरणों की दासी हूँ। आठों पहर (आदि अंत: यहाँ हर पल) मेरा
ह्रदय तेरे ही नाम का जप करता है। हे प्रभु यह दासी मोहभरे, स्वार्थी संसार के
भावसार के बीच फंसी है। यहाँ मेरी आस्था, विश्वास, जिजीविषा की नाव के पाल फटे हैं।
अब इस लगता है की यह दासी अब इस समुंदर में डूबकर मर जाएगी। प्रभु, जल्दी करो; आकर
मुझे इससे बचा लो। मेरा अब तुम ही सहारा हो तुम आओगे इस विश्वास से बार-बार
तुम्हारे लिए समर्पित होने की प्रबल इच्छा जाग रही है। अब यह दुःख (बेड़ा) सहा नहीं
जाता। तुम्हारी यह दासी प्रभु तेरे नाम को रटते हुए तुम्हारे (प्रियतम श्रीकृष्ण)
आने की बाट जोह रही है। जल्दी करो प्रभु, मैं तेरे शरणों में समर्पित होना चाहती
हूँ। मैं तुम्हे शरण आ रही हूँ तुम ही मेरी अंतिम गति हो।
(३)
फागुन के दिन चार रे, होरी खेल मना रे ।
बिनि करताल पखावज बाजै, अणहद की झणकार रे ।
बिनि सुर राग छतीसूँ गावै, रोम रोम रणकार रे
।
सील संतोख की
केसर घोली, प्रेम प्रीत-पिचकार रे ।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे ।
घट के सब पट खोल दिये हैं, लोक लाज सब डार रे ।
(होरी खेलि पीव घर आये, सोइ
प्यारी प्रिय प्यार रे । )
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, चरण कँवल बलिहार रे ।।
शब्दार्थ:
फागुन-
प्रसन्नदायक मास, दिन चार- अल्पावधि, होरी- रंग क्रीडा, मना रे – हे मन, बिनि-
बिना, करताल- तली की ध्वनि, अणहद नाद- ब्रह्मनाद, झनकार- ध्वनि, सुर- ध्वनि, राग छतीसूँ- छत्तीस प्रकार के राग, रोम-रोम- सर्वांग, रणकार- नादमय,
सील- शील, संतोख- संतोष, केसर- सुगंधित रंग, पिचकार- रंग उंडेल देना, लाल भयो –
अनुराग का लाल रंग छा जाने जैसा लगना, घट- हृदय, पट- द्वार (यहाँ तन और आवरण यह
अर्थ अपेक्षित नहीं है), लोक-लाज- संसार मर्यादा, डार- डाल देने की क्रिया,
गिरिधर- गोवर्धन पर्वत उठाने वाले, चरण- पद कँवल- कमल.
भावार्थ (व्याख्या)
· इस
पद में होली के माध्यम से सहज समाधि
का चित्र खिंचा गया है और ऐसी
समाधि का साधन प्रेमपराभक्ति को बताया गया है।
प्रस्तुत
पद में कवयित्री मीराबाई जी ने अपनी आध्यात्मिक साधना को होली के फागुन के रूप में
निरूपण करते हुए प्रियतम कृष्ण के प्रति अपने समर्पण भाव को प्रतिपादित किया है.
कवयित्री मीराबाई अपनी आध्यात्मिक समाधी की अवस्था का वर्णन होली के खेलने के रूप
में कराती हुई कहती है कि फाल्गुन मॉस में होली खेलने का समय अत्यल्प होता है. अतः
हे मन! तू मन भर के होली खेल ले. अभिप्राय: यह है कि जीवन अस्थाई है, इसलिए भगवान कृष्ण
से पूर्णरूप से प्रेम कर ले. वे कहती हैं कि जिस प्रकार से होली के उत्सव पर नाच,
आदि का आयोजन होता है, उसी प्रकार ध्यानावस्था में मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि
करताल, पखावज, आदि बाजे बज रहे हैं और अनहद-नाद (ब्रह्मनाद) का स्वर सुने दे रहा
है, जिससे मेरा हृदय बिना स्वर और राग के अनेक रगों का आलाप करता रहता है. इस
प्रकार मेरा रोम-रोम भगवान कृष्ण के प्रेम के रंग में डूबा रहता है. आगे वे कहती
हैं कि मैंने प्रिय से होली खेलने के लिए शील और संतोषरूपी केसर का रंग घोला है और
मेरा कृष्णप्रेम ही होली खेलने की पिचकारी है, जिसके द्वारा फेंके हुए रंग से और
उड़ाती हुई गुलाल से सारा आकाश लाल हो गया है अर्थात मेरे हृदय में पूर्णरूप से लाल
(अनुराग) अथवा प्रेम का रंग भर गया है. भाव यह है की संतोष और शील को अपनाकर मैंने
भगवान् से प्रेम करना आरंभ कर दिया है और उस प्रेम में मग्न रहकर मैंने भगवान को
अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है. अब मुझे लोकलाज का कोई डर नहीं हैं, इसलिए मैंने
हृदय विकारों को दूर कर हृदयरूपी घर के
दरवाजे खोल दिए हैं. अब प्रियतम के दर्शन में किसी प्रकार की बाधा नहीं रही है. वे
प्रियतम कृष्ण के सान्निध्य का अनुभव करती
हुई कहती है कि मेरे प्रियतम कृष्ण स्वयं ही मेरे हृदयरूपी घर में होली खेलने के
लिए आये हैं. जिसके प्रियतम स्वयम होली खेलने आए, वह स्त्री अपने प्रेमी की सच्ची
प्रेयसी है तथा सच्चे प्रे की यही पहचान है. अंत में मीराबाई कहती है कि मेरे
स्वामी गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले कृष्ण भगवान है. मैंने उनके प्रेम में
उनके चरण कमलों में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया है.
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अध्यापन के लिए काफी मददगार साबित हुआ । आपके इस कार्य को धन्यवाद !
ReplyDeleteThank you
ReplyDeleteThanks sir
ReplyDeleteNot So Good
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