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Friday 2 March 2018

जमशेदजी नुसीरवानजी टाटा - जन्म- 3 मार्च, 1839,गुजरात; मृत्यु- 19 मई, 1904, जर्मनी

                      जमशेदजी नुसीरवानजी टाटा (अंग्रेज़ी: Jamsetji Tata, जन्म- 3 मार्च, 1839,गुजरात; मृत्यु- 19 मई, 1904, जर्मनी) भारत के विश्व प्रसिद्ध औद्योगिक घराने "टाटा समूह" के संस्थापक थे। भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में जमशेदजी ने जो योगदान दिया, वह असाधारण और बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उन्होंने भारतीय औद्योगिक विकास का मार्ग ऐसे समय में प्रशस्त किया था, जब उस दिशा में केवल यूरोपीय, विशेष रूप से अंग्रेज़ ही कुशल समझे जाते थे। इंग्लैण्ड की अपनी प्रथम यात्रा से लौटकर जमशेदजी टाटा ने चिंचपोकली की एक तेल मिल को कताई-बुनाई मिल में परिवर्तित करके औद्योगिक जीवन का सूत्रपात किया था। टाटा साम्राज्य के जनक जमशेदजी द्वारा किए गये अनेक कार्य आज भी लोगों को प्रेरित एवं विस्मित करते हैं। भविष्य को भाँपने की अपनी अद्भुत क्षमता के बल पर ही उन्होंने एक स्वनिर्भर औद्योगिक भारत का सपना देखा था। उन्होंने वैज्ञानिक एवं तकनीकी शिक्षा के लिए बेहतरीन सुविधाएँ उपलब्ध करायीं और राष्ट्र को महाशक्ति बनने के मार्ग पर अग्रसर किया।

जन्म तथा शिक्षा
            जमशेदजी टाटा का जन्म सन 3 मार्च, 1839 में गुजरात के एक छोटे-से कस्बे नवसेरी में हुआ था। उनका परिवार पारसी पुजारियों का था। उनके पिता का नाम नुसीरवानजी तथा माता का नाम जीवनबाई टाटा था। पारसी पुजारियों के अपने ख़ानदान में नुसीरवानजी पहले व्यवसायी व्यक्ति थे। जमशेदजी का भाग्य उन्हें मात्र चौदह वर्ष की अल्पायु में ही पिता के साथ बंबई (वर्तमान मुम्बई) ले आया। यहाँ उन्होंने व्यवसाय में क़दम रखा। जमशेदजी अपनी छोटी नाज़ुक उम्र में ही पिता का साथ देने लगे थे। सत्रह वर्ष की आयु में जमशेदजी ने 'एलफ़िंसटन कॉलेज', मुम्बई में प्रवेश ले लिया। इसी कॉलेज से वे दो वर्ष बाद 'ग्रीन स्कॉलर' के रूप में उत्तीर्ण हुए। तत्कालीन समय में यह उपाधि ग्रेजुएट के बराबर हुआ करती थी। कुछ समय बाद इनका विवाह हीरा बाई दबू के साथ हो गया।

भारत में उच्च शिक्षा के पक्षधर
            सन 1893 में बुद्ध स्वरूप स्वामी विवेकानन्द की शक्ति जब अमेरिका में प्रज्ज्वलित हुई तो 'शिकागो विश्वधर्म महासम्मेलन' के माध्यम से उस समय जमशेदजी भी उनकी तरफ़ आकृष्ट हुए थे। भारत में आने के बाद जब भारतीयों ने उन्हें श्रद्धा के सर्वोच्च स्थान पर बैठाया, तब भी स्वामीजी के प्रभाव से जमशेदजी अछूते नहीं रहे। उसके बाद उनके जीवन में अचानक एक बदलाव आया। वह भारत में स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए एक प्रतिष्ठान स्थापित करने के उद्देश्य से किसी एक उपयुक्त रूप से सुसंगठित कमेटी के हाथों कुछ भू-सम्पत्ति देना चाहते थे। उन्होंने भारत में विश्वविद्यालय शिक्षा की अग्रगति हेतु विचार करना शुरू किया। उन्होंने देश में छात्रों के शोध-कार्य हेतु शोध संस्थाओं की स्थापना एवं उसके लिए ग्रंथागारों की व्यवस्था, जहाँ पर छात्र प्रख्यात शिक्षकों के अधीनस्थ शोध कार्य कर सकें, आदि पर गहरा चिंतन प्रारंभ किया। अपने उपरोक्त प्रस्ताव के पूर्व उन्होंने यूरोप में प्राथमिक खोज-खबर ले ली थी तथा इंग्लैण्ड एवं अन्य विश्वविख्यात वैज्ञानिकों से सलाह मशवरा भी कर लिया था। जमशेदजी का यह प्रस्ताव उस समय आया, जब अंग्रेज़ शासित भारत में शिक्षा के प्रसार पर अंकुश लगाने की सरकारी व्यवस्था हो रही थी। भारत के शिक्षित समुदाय में जमशेदजी का यह प्रस्ताव गंभीर चिंतन का विषय बना। सचमुच यह एक साहसी कदम था।
अंग्रेज़ों की चाल
      अंग्रेज़ भारत में उच्च शिक्षा के ख़िलाफ़ थे। वे अपना काम चलाने तक ही लोगों की शिक्षा को सीमित रखना चाहते थे। मौलिकता के साथ उस शिक्षा का कोई संबंधी नहीं था। देश की संपदा वृद्धि से भी इसका कोई सरोकार नहीं था। इन परिस्थितियों में जमशेदजी उच्च शिक्षा के लिए अर्थ सहायता देकर एक बहुत बड़ा साहसी कदम उठाने जा रहे थे, जिसे शिक्षित समाज ने काफ़ी सराहा। लेकिन जमशेदजी के इस प्रस्ताव को रोकने के लिए तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार बहुत ही चालाकीपूर्ण एवं निम्नश्रेणी के रवैये अपनाने से नहीं चूकी। लॉर्ड कर्ज़न ने जमशेदजी के इस प्रस्ताव के प्रति अपनी पूर्ण सहानुभूति जताते हुए कई मामलों में इसे सफल होने में संदेह जाहिर किया, जैसे- इसके लिए यथेष्ठ छात्र मिलेंगे या नहीं, शिक्षा समाप्ति के उपरान्त उन लड़कों को नौकरी मिलेगी या नहीं इत्यादि। सरकारी विरोध से जमशेदजी को बहुत धक्का लगा। सरकारी तौर पर इसमें और अधिक अर्थ की आवश्यकता बताई गई। अंत में हारकर जमशेदजी ने इस प्रस्ताव को वापस लेने पर विचार शुरू कर दिया, जबकि देश के सारे बुद्धिजीवी निराश होकर आंर्तनाद करने लगे, क्योंकि उनकी दृष्टि में भारत का विकास प्रौद्योगिक विकास पर बहुत हद तक आधारित था।
         स्वामी विवेकानन्द जमशेदजी के इस प्रस्ताव के बहुत ही आग्रही थे। वह व्याकुलता से अपने जीवन स्वप्न को रूपायित होते देखना चाह रहे थे। वह जानते थे कि इस देश का उत्थान केवल कृषि से ही संभव नहीं है, बल्कि औद्योगिकीकरण की भी आवश्यकता है। वह देश में शिल्प उद्योगों की स्थापना करना चाहते थे। वह सन्न्यासियों का एक दल बनाकर इस कार्य को आगे बढ़ाना चाहते थे, ताकि देश की जनता की आर्थिक दशा सुधरे। अमेरिका भारत में प्रचार के लिए धर्म शिक्षकों को न भेजकर शिल्प शिक्षकों को भेजे, आधुनिक भारतवर्ष में सामाजिकता एवं शिल्प शिक्षा की आवश्यकता है, ऐसा स्वामीजी ने अमेरिका में कहा था। हो सकता है कि स्वामीजी ने अपनी यात्रा के दौरान देश हितैषी व्यवसायी जमशेदजी को भारत में शिल्प-शिक्षा प्रदान करने की अपनी कल्पना से पूर्णरूपेण अवगत कराया हो और उसी के प्रभाव से जमशेदजी ने रिसर्च इंस्टीट्यूट खोलने की परिकल्पना की हो।
जमशेदजी का पत्र

          विवेकानन्द जी के साथ पाँच वर्ष पूर्व हुई अपनी मुलाकात को ताजा करते हुए जमशेदजी टाटा ने उन्हें 23 नवम्बर, 1898 को एक पत्र लिखा था कि- "भारत में वैज्ञानिक शोध हेतु एक शोध संस्थान खोलने संबंधी मेरी परिकल्पना से आप अवश्य अवगत होंगे। इस संदर्भ में मैं आपके चिन्तन एवं भावधारा में जाने की बात गहराई से सोच रहा हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि कुछ त्यागव्रती मनुष्य यदि आश्रम जैसे आवासीय स्थल में अनाडंबर जीवन यापन कर, प्राकृतिक एवं मानविक विज्ञान की चर्चा में अपने जीवन को उत्सर्ग कर दें तो इससे बड़ा त्याग का आदर्श और दूसरा नहीं हो सकता।" जमशेदजी ने यह समझा था कि उनकी परिकल्पना सिर्फ़ पैसे से साकार नहीं हो सकती, मनुष्य चाहिए और इस संबंध में मनुष्यों का आह्वान कर उन्हें जगाने में स्वामीजी ही सक्षम हो सकते हैं। अत: जनसाधारण के उन्नयन के लिए उन्होंने स्वामीजी से अग्निमय वाणी संकलित कर एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित करने का आग्रह किया था, जिसका पूरा व्यय वह देने को तैयार थे।[3]
सर्वधर्म प्रेमी
             इस्पात कारखाने की स्थापना के लिए स्थान का अंतिम रूप से चयन होने के ठीक पाँच साल पहले ही यानी 1902 में उन्होंने विदेश से अपने पुत्र दोराब को लिखा था कि- "उनके सपनों का इस्पात नगर कैसा होगा"। उन्होंने लिखा था कि- "इस बात का ध्यान रखना कि सड़कें चौड़ी हों। उनके किनारे तेजी से बढ़ने वाले छायादार पेड़ लगाये जाएँ। इस बात की भी सावधानी बरतना कि बाग़-बगीचों के लिए काफ़ी जगह छोड़ी जाये। फुटबॉल, हॉकी के लिए भी काफ़ी स्थान रखना। हिन्दुओं के मंदिरों, मुस्लिमों की मस्जिदों तथा ईसाईयों के गिरजों के लिए नियत जगह मत भूलना।"
मृत्यु
       जमशेदजी टाटा ने 19 मई, 1904 को जर्मनी के बादनौहाइम में अपने जीवन की अंतिम साँसें लीं। अपने आखिरी दिनों में पुत्र दोराब और परिवार के नजदीकी लोगों से उन्होंने उस काम को आगे बढ़ाते रहने के लिए कहा, जिसकी उन्होंने शुरुआत की थी। उनके योग्य उत्तराधिकारियों ने काम को सिर्फ़ जारी ही नहीं रखा, बल्कि उसे फैलाया भी। जमशेदजी की मृत्यु के बाद सर दोराब टाटा, उनके चचेरे भाईजे. आर. डी. टाटा, बुरजोरजी पादशाह और अन्य लोगों ने टाटा उद्योग को आगे बढ़ाया। जमशेदजी ने कहा था कि- "अगर किसी देश को आगे बढ़ाना है तो उसके असहाय और कमज़ोर लोगों को सहारा देना ही सब कुछ नहीं है। समाज के सर्वोत्तम और प्रतिभाशाली लोगों को ऊँचा उठाना और उन्हें ऐसी स्थिति में पहुँचाना भी ज़रूरी है, जिससे कि वे देश की महान् सेवा करने लायक़ बन सकें।

विनम्र अभिवादन !!!

Thursday 1 March 2018

आलेख: शिशुवर्ग के अभिभावक

          
             अबोध बालकों का खिलखिलाता आँगन होता है शिशुवर्ग (आंगनवाड़ी)। परिवार के बाद बच्चों को सबसे सुरक्षित जगह लगती है आंगनवाड़ी। बच्चा जब तीन साल के ऊपर हो जाता है तो अपने घर-आँगन की सीमाएँ लाँघकर शिशुवर्ग की फुलवारी में खिलने के लिए जाता है। आजकल तो इन बच्चों की सुविधा के लिए खेल सामग्री, मध्याह्न भोजन की उपलब्धि एवं मनोरंजन के साधन सहज ही उपलब्ध हो किए जाते हैं। सभी बच्चे अपने नए दोस्तों के साथ खुशियों का अनुभव करते हैं। इतना होने के बावजूद भी कुछ बच्चे अन्य बच्चों के साथ घुलमिल जाने में असमर्थता दर्शाते हैं। जब इसके पीछे के कारण ढूंढने जाए तो बहुत मिलेंगे। चलो, इन्हें ढूंढने की कोशिश करते है। इससे पहले इसी के संदर्भ में एक अनुभव आपके साथ बाँटना चाहता हूँ।
         मेरी बेटी तीन साल की हुई तो उसे शिशुवर्ग में भरती कराया। शुरआत में सभी बच्चों के साथ घुलमिल गई। दो- तीन महीनों के बाद अचानक शिशुवर्ग में जाने के लिए रोना-धोना शुरू हुआ। मैं समझ नहीं पाया आखिर दो-तीन महीने तक शिशुवर्ग में रहने के बाद अचानक यह यह क्या हुआ ? पता करने पर बात सामने आई की बच्ची शिशुवर्ग की अध्यापिका के पास खड़ी रहने पर डाँट मिलने के कारण डरी हुई थी। उसके बाद अगले तीन महीने तक वह शिशुवर्ग में नहीं गई। हमने भी कुछ कहा नहीं। दीपावली की छुट्टियों के बाद अन्य शिशुवर्ग में नियमित जाने लगी है। इसपर गौर करते हुए नए शिशुवर्ग की ताई के बारे में जानकारी प्राप्त की तो पता चला कि यह ताई इन छोटे बच्चों के साथ बैठकर बच्चों की गतिविधियाँ बच्चों से घुलमिलकर करती हैं। चाहे भोजन हो या कुछ और बात। इसमें ना डाँट है ना बच्चों की गलतियाँ दिखाना।  प्यार से उनके हिसाब से कार्य करते हुए नई बातों से अवगत कराना हैं।
            बस! यही बच्चे चाहते हैं। बच्चों के साथ यदि बचपना व्यवहार ना करें तो बच्चे ना कुछ नया सीख पाएँगे और ना ही उनका सामाजिक, शारीरिक, भावनीक एवं बौद्धिक विकास संभव है। वैसे भी यह उम्र खेलकूद एवं मनोरंजन के माध्यम से शारीरिक एवं मानसिक समायोजन की होती है। यह समझकर क्या ज्ञानदाता इनके अभिभावक नहीं बन सकते। बच्चों  अभिभावक ही बनाने की आवश्यकता है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो कुछ बच्चे आत्माभिमुक बनेंगे जिसकी वजह से उनके शारीरिक विकास के साथ मानसिक विकास की गति रुकने की संभावना हैं। जिसके परिणाम स्वरूप बौद्धिक विकास भी रूक जाएगा।  आगे के दर्जे के वर्ग में यहीं हाल रहेगा तो बच्चे का विकास मनचाहा करना कठीन जाएगा। एक रोज एक अभिभावक ने बताया कि मेरे बच्चे को शिशुवर्ग का पाठ नहीं समझ आया तो भी चलेगा, परंतु वह शिशुवर्ग में नियमित आए, बस आप इस ओर गौर करें। उस अभिभावक की बात की गहराई स्पष्ट है। घर जैसा माहौल बच्चों को मिलना आवश्यक है। यानी कि अध्यापकों को उनके माता-पिता की तरह बच्चों के साथ लगाव एवं बर्ताव होना अपेक्षित हैं। बच्चे की मानसिकता, शारीरिक समायोजन एवं भावनाओं को पहचानकर उनके बचपन में हम बचपन जिए तो उन्हें हमपर भरोसा निर्माण होगा। फिर आप जैसा चाहते हो वैसा ही वह बालक कार्य करेंगे।
              हाँ, और एक बात। शिशुवर्ग अध्यापकों ने अभिभावक बनकर जिम्मेदारी उठाने के बाद असली अभिभावक निश्चिंत ना रहे। आजकल के अभिभावकों के पास बालकों  के लिए समय ही नहीं हैं, यह बात भी स्पष्ट हो रही है। चाहे दोनों (माता-पिता) नौकरी क्यों न करते हो या अन्य कार्य परंतु उन्हें अपने बच्चों के लिए नियमितता से समय निकालना आवश्यक हैं। शिशुवर्ग में जो गतिविधियाँ चलती है उसके बारे में अपने बच्चे से पूछकर अवगत हो और प्रेरित करें । एक छोटी-कविता हो या फिर कहानी या नक़ल की बात, अभिभावकों को भी बचपने की तरह बच्चों की जिज्ञासावृत्ति जगाने के लिए उनके साथ बचपना हरकत, सवाल और क्रियाकलाप करना बेहद जरुरी हैं। इससे बालक को परिवार और शिशुवर्ग परिवार में एकसमान माहौल तैयार हो जाएगा। परिणाम स्वरूप बच्चे का हर प्रकार से गतिशील विकास होने से कोई नहीं रोक सकता। बचपन की उम्र बालकों के जीवन की नींव है। जब जड़े ही मजबूत बनेगी तो बालक के जीवनरूपी आगे की इमारत (अभिभावकों की उम्मीदों की) अडिग एवं विभिन्न कौश्यल्यों से परिपूर्ण बनेगी। 
               चलो एक अभियान चलाए,  बालकों के अभिभावक एवं दोस्त बनें और संस्कारयुक्त देश के बालक के द्वारा सशक्त नागरिक निर्माण करें। नई पीढ़ी का उत्थान करें। 
******धन्यवाद ******
आलेख लेखक 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 
उप अध्यापक
ग्राम भिराडाचीवाडी
पोस्ट भुईंज, तहसील वाई,
जिला सातारा - 415 515 (महाराष्ट्र)  
9730491952 / 9545840063 

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होली के सप्तरंग

💐🌹होली के सप्तरंग 🌹💐

खुशी के इंद्रधनुष के,
सप्तरंग ले आईं होली,
बसंत में भी रंगारंग,
सजे मनरंग दिवाली। 

रंग जामुनी सपने सजे,
खिले तन-मन कली,
रंग लै केसरिया मनभावन,
उँडेल दे मन की गली। 

शालिनता लाए रंग नारंगी,
प्यार भर-भर लाए झोली,
पीले के हैं रूप निराले,
मधुर आम-सी मधुरता लाई। 

समृद्धि का प्रतिक रंग हरा,
जीवन में फैले नीत हरियाली,
धीरता-वीरता लाए नील रंग,
बुने सबसे प्रीत निराली।

सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य की,
बैंगनी दे रहा मीठी-मीठी गोली.
भारत भू की धरा में,
खिली आज परंपरा की कली। 

इंद्रधनुष के सप्तरंग से,
बने सब पावन जले ऐसी होली। 
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रचना 
नवकवि
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 

उपशिक्षक 
ज्ञानदीप इंग्लिश मेडियम स्कूल, पसरणी। 
भिरडाचीवाडी, पो.भुईंज, तह.वाई,
जिला-सातारा ४१५ ५१५
चलित : ९७३०४९१९५२ / ९५४५८४००६३
प्रकाशनार्थ 
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होली के पावन पर्व की मेरे सभी जेष्ठ, कनिष्ठ, हमउम्र- स्नेही, हितैषि, प्रियजन, परिजनों को ढेर सारी मंगलकामनाएँ
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