अबोध बालकों का खिलखिलाता आँगन होता है शिशुवर्ग (आंगनवाड़ी)। परिवार के बाद बच्चों को सबसे सुरक्षित जगह लगती है आंगनवाड़ी। बच्चा जब तीन साल के ऊपर हो जाता है तो अपने घर-आँगन की सीमाएँ लाँघकर शिशुवर्ग की फुलवारी में खिलने के लिए जाता है। आजकल तो इन बच्चों की सुविधा के लिए खेल सामग्री, मध्याह्न भोजन की उपलब्धि एवं मनोरंजन के साधन सहज ही उपलब्ध हो किए जाते हैं। सभी बच्चे अपने नए दोस्तों के साथ खुशियों का अनुभव करते हैं। इतना होने के बावजूद भी कुछ बच्चे अन्य बच्चों के साथ घुलमिल जाने में असमर्थता दर्शाते हैं। जब इसके पीछे के कारण ढूंढने जाए तो बहुत मिलेंगे। चलो, इन्हें ढूंढने की कोशिश करते है। इससे पहले इसी के संदर्भ में एक अनुभव आपके साथ बाँटना चाहता हूँ।
मेरी बेटी तीन साल की हुई तो उसे शिशुवर्ग में भरती कराया। शुरआत में सभी बच्चों के साथ घुलमिल गई। दो- तीन महीनों के बाद अचानक शिशुवर्ग में जाने के लिए रोना-धोना शुरू हुआ। मैं समझ नहीं पाया आखिर दो-तीन महीने तक शिशुवर्ग में रहने के बाद अचानक यह यह क्या हुआ ? पता करने पर बात सामने आई की बच्ची शिशुवर्ग की अध्यापिका के पास खड़ी रहने पर डाँट मिलने के कारण डरी हुई थी। उसके बाद अगले तीन महीने तक वह शिशुवर्ग में नहीं गई। हमने भी कुछ कहा नहीं। दीपावली की छुट्टियों के बाद अन्य शिशुवर्ग में नियमित जाने लगी है। इसपर गौर करते हुए नए शिशुवर्ग की ताई के बारे में जानकारी प्राप्त की तो पता चला कि यह ताई इन छोटे बच्चों के साथ बैठकर बच्चों की गतिविधियाँ बच्चों से घुलमिलकर करती हैं। चाहे भोजन हो या कुछ और बात। इसमें ना डाँट है ना बच्चों की गलतियाँ दिखाना। प्यार से उनके हिसाब से कार्य करते हुए नई बातों से अवगत कराना हैं।
बस! यही बच्चे चाहते हैं। बच्चों के साथ यदि बचपना व्यवहार ना करें तो बच्चे ना कुछ नया सीख पाएँगे और ना ही उनका सामाजिक, शारीरिक, भावनीक एवं बौद्धिक विकास संभव है। वैसे भी यह उम्र खेलकूद एवं मनोरंजन के माध्यम से शारीरिक एवं मानसिक समायोजन की होती है। यह समझकर क्या ज्ञानदाता इनके अभिभावक नहीं बन सकते। बच्चों अभिभावक ही बनाने की आवश्यकता है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो कुछ बच्चे आत्माभिमुक बनेंगे जिसकी वजह से उनके शारीरिक विकास के साथ मानसिक विकास की गति रुकने की संभावना हैं। जिसके परिणाम स्वरूप बौद्धिक विकास भी रूक जाएगा। आगे के दर्जे के वर्ग में यहीं हाल रहेगा तो बच्चे का विकास मनचाहा करना कठीन जाएगा। एक रोज एक अभिभावक ने बताया कि मेरे बच्चे को शिशुवर्ग का पाठ नहीं समझ आया तो भी चलेगा, परंतु वह शिशुवर्ग में नियमित आए, बस आप इस ओर गौर करें। उस अभिभावक की बात की गहराई स्पष्ट है। घर जैसा माहौल बच्चों को मिलना आवश्यक है। यानी कि अध्यापकों को उनके माता-पिता की तरह बच्चों के साथ लगाव एवं बर्ताव होना अपेक्षित हैं। बच्चे की मानसिकता, शारीरिक समायोजन एवं भावनाओं को पहचानकर उनके बचपन में हम बचपन जिए तो उन्हें हमपर भरोसा निर्माण होगा। फिर आप जैसा चाहते हो वैसा ही वह बालक कार्य करेंगे।
हाँ, और एक बात। शिशुवर्ग अध्यापकों ने अभिभावक बनकर जिम्मेदारी उठाने के बाद असली अभिभावक निश्चिंत ना रहे। आजकल के अभिभावकों के पास बालकों के लिए समय ही नहीं हैं, यह बात भी स्पष्ट हो रही है। चाहे दोनों (माता-पिता) नौकरी क्यों न करते हो या अन्य कार्य परंतु उन्हें अपने बच्चों के लिए नियमितता से समय निकालना आवश्यक हैं। शिशुवर्ग में जो गतिविधियाँ चलती है उसके बारे में अपने बच्चे से पूछकर अवगत हो और प्रेरित करें । एक छोटी-कविता हो या फिर कहानी या नक़ल की बात, अभिभावकों को भी बचपने की तरह बच्चों की जिज्ञासावृत्ति जगाने के लिए उनके साथ बचपना हरकत, सवाल और क्रियाकलाप करना बेहद जरुरी हैं। इससे बालक को परिवार और शिशुवर्ग परिवार में एकसमान माहौल तैयार हो जाएगा। परिणाम स्वरूप बच्चे का हर प्रकार से गतिशील विकास होने से कोई नहीं रोक सकता। बचपन की उम्र बालकों के जीवन की नींव है। जब जड़े ही मजबूत बनेगी तो बालक के जीवनरूपी आगे की इमारत (अभिभावकों की उम्मीदों की) अडिग एवं विभिन्न कौश्यल्यों से परिपूर्ण बनेगी।
चलो एक अभियान चलाए, बालकों के अभिभावक एवं दोस्त बनें और संस्कारयुक्त देश के बालक के द्वारा सशक्त नागरिक निर्माण करें। नई पीढ़ी का उत्थान करें।
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