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Wednesday, 14 February 2018

आलेख : सच और झूठ का सिक्का

सच और झूठ का सिक्का 


          मेरे मित्र ने मुझे पूछा कि तुम्हारे जीवन में सच और झूठ का क्या महत्त्व है ? मै इस अनोखे परंतु अपने स्वभाव से परिचित प्रश्न से सोच में पड़ गया। जवाब भी क्या देता मैं? सच को अधिक महत्त्व देता हूँ तो फिर मन में प्रश्न उठा कि क्या मैं हमेशा सच का साथ देता आया हूँ? नहीं तो झूठ को अधिक महत्त्व दूँ तो क्या मैं सच से ज्यादा झूठ व्यवहार में लाता हूँ? मैं दुविधा में था। मैंने उस मित्र को उस समय सही उत्तर खोजने में अपने-आप में असमर्थ पाया। विनम्रता से मैंने दोस्त से कहा,"मुझे कुछ समय दो, तो निश्चित इसका जवाब तुम्हें दे दूंगा।" इसके बाद मिले समय में मैंने खुद का आत्मपरीक्षण किया और कुछ निर्णय किया वह कुछ ऐसा था -
          मैंने बचपन से लेकर आजतक अपने जीवन को इस कसौटी पर परखने की कोशिश की। बचपन में जैसे ही थोड़ी-थोड़ी समझ आई तो परिवार के सदस्यों की आज्ञा के अनुसार काम करना पड़ा। कभी माँ-पिता जी, दादा-दादी जी , चाचा-चाची जी तो कभी पड़ोसियों के निर्देशित काम करने थे, उस समय मुझे लालच देने की बात होती थी। जैसे चॉकलेट, पैसे, खिलौनें आदि। और बचपने की वजह से हम काम भी कर लेते थे, और दिया हुए लालच के अनुसार चीजें मिलती गई, परंतु हर बार मिल पाना असंभव था लेकिन लालच देना बंद नहीं था। ऐसे व्यवहार की वजह से बड़े लोगों के झूठ बच्चे तो उन्हीं के सामने पकड़ते हैं और कहते भी हैं, "आप झूठे हो, काम तो करवाते हो पर बोली के अनुसार मुआवजा नहीं देते हो।"
          अक्सर ऐसी घटनाएँ घर-घर में होती हैं परंतु बड़े-बुजुर्ग बच्चों के बचपन को बचपने की तरह देखते हैं। यही बच्चे बड़े होकर अन्य छोटे बच्चों के साथ आदत के अनुसार झूठा व्यवहार करते हैं। इन्हीं के बीच माता-पिता के व्यवहार भी देखे कि बच्चे की कोई भी माँग पूरी करने न करने में सच और झूठ बराबर चलता अनुभव होता है। परंतु एक ही माहौल में दो अलग-अलग अनुभव आए 'झूठ और सच' के। यह सिर्फ एक प्रारंभिक उदहारण था। न जाने ऐसे कितनी ही बातें है जो सच और झूठ से जुड़ी हैं। 
          मानव स्वभाव ‘व्यक्ति-व्यक्ति मति भिन्न’ इस उक्ति के अनुसार होता है। सच और झूठ मनुष्य के सामाजिक माहौल, शिक्षा, आवश्यक उपलब्धियाँ, जरूरतें आदि घटकों पर निर्भर हैं ऐसी मेरी सोच है। पाठशाला में पढ़ते समय अनेक परिचित महानुभवी, ज्ञानी, शिक्षाविद, ऐतिहासिक कर्मनिष्ठ एवं महान व्यक्तियों के उदहारण सामने रखे जाते थे। ऐसा इसने किया और उसने ऐसा किया, परंतु बतानेवाले ने स्वयं क्या किया यह कभी बताने एवं समझने-समझाने की कोशिश ही नहीं की। बस दूसरों की बात गढ़ते-गढ़ाते चले जाते हैं।सुननेवाले उन महान लोगों की वास्तविकता से अनभिज्ञ रह जाते हैं। जब सच्चाई सामने आ जाती है तो जो अवगत कराया उसे झूठा पाया जाता है। ऐसी परिस्थिति में किसके पक्ष-विपक्ष में कहे। यह तो हर किसी के ज्ञान और समय की बात है क्योंकि देनेवाला भी अपना और पाने वाले तो स्वयं हैं। बहुत से लोग कहते हैं - 'गांधीजी की सीख - सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह का अनुसरण करोगे तो तुम्हारा जीवन सफल हो जाएगा।' परंतु वही जब गांधीजी की सिखावन को उन्हीं की तस्वीर और पुतले के सामने पैरों तले कुचली जाती हैं तब शायद बापू की भी रूह काँपती होगी। और आज तो मनुष्य अपनी उपभोक्तावाद भरी जिंदगी में समय-दर-समय झूठ और सच का ऐसा व्यवहार धड़ल्ले-से कर रहा है।
         स्वभाविकतः हर एक मनुष्य समय के अनुसार सच और झूठ का प्रयोग करता है। परंतु इतिहास गवाह है झूठ हमेशा सच के सामने झुका हुआ पाया है। इतना सबकुछ ज्ञात होने के बावजूद भी मनुष्य कई बार सच और झुठ के व्यवहार में निर्णय नहीं कर पाता। परिणामतः झूठ के लिए सच और सच के लिए झूठ का सहारा लेता है।और वास्तविकता जब विपरीत सामने आ जाए तो भले-बुरे परिणामों का सामना करना पड़ता हैं। सच तो अंतर्मन की आवाज है। झूठ समय के अनुकूल-प्रतिकूल का डर है, ऐसी मेरी धारणा है। 'सच' तो खरा, यथार्थ और वास्तविक होता है, उसके लिए कोई झूठा नकाब पहनने की आवश्यकता ही नहीं। परंतु झूठ को छिपाने के लिए झूठ-पर-झूठ की बौछार की जाती है यह भी एक सच्चाई है। आखिर झूठ भी तो एक सच है। लेकिन एक और सवाल मन में उभरे बिना नहीं रहता। जैसे सच निहायत जरुरी है वैसे क्या झूठ निहायत जरुरी हो सकता है ? 
         अक्सर न्याय भी केवल सच्चाई चाहता है और न्याय देते समय सच्चाई की शपथ दी जाती है लेकिन ईमानदारी से सच्चाई को स्वीकारने वाले का ढ़ाढस गिने-चुने लोग ही करते है। झूठे सबूत और गवाहों के कारन भारत वर्ष में कई निरपराध दोषी ठहराएँ जाते हैं और वे बेचारे बिना वजह सजा भुगतते हैं। जब नकाब उतर कर सच्चाई सामने आ जाती है तो समय आगे जा चूका होता है। वह इंसान पहले जैसा मान-सम्मान नहीं पा लेता। भले ही वह सही था पर समय और सच्चाई के रखवालों के कारन अपने ही नज़रों में उसे सम्मान पाना मुश्किल हो जाता है। सभी विद्व जनों से पूछना चाहूँगा कि ऐसी हालात में किस सच को 'सच और झूठ' मानेंगे। जो सच-झूठ मान-सम्मान खो दे। यह वास्तविकता एक तरफ है और दूसरी ओर कहा जाता है कि सौ अपराधी छूट जाए तो भी चलेगा परंतु एक निरपराध को सजा नहीं होनी चाहिए। इस बात पर हँसी छूटती है कारन एक ही स्थान पर एक ही बात के लिए सच और झूठ के लिए पक्का निर्णय हो पाना मुश्किल हो जाता है। यह तो न्याय-अन्याय की बात है। व्यावहारिक जीवन में तो सच को बचाने लिए झूठ, और झूठ को बचाने के लिए और झूठ का सहारा आम बात हो गई है। सामान्य बातों में इस बात का बवाल नहीं होता है। पारिवारिक रिश्तों को निभाते हुए इस बात को बड़ी सावधानी से रखना होगा। रिश्तों में झूठ को कोई स्थान नहीं होना चाहिए। परिवार हो या रिश्तें इसी नींव पर जीवन का महल खड़ा होता है। पारिवारिक रिश्तों को सँभालते हुए देखा गया है कि अपनों की ख़ुशी के लिए झूठ का भी सहारा बड़े आत्मविश्वास के साथ लिया जाता है, परंतु उसमें अपनों की भलाई ही छिपी होती है, इसमें कोई गुंजाईश नहीं। इसके विपरीत स्वांत-सुखाय हेतु यदि इसमें झूठापन आएगा तो पलक झपकते ही घर टूटने को देर नहीं होगी। रहीम जी ने सही कहा है-
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरउ चटकाय।
टूटे से फिरि न जुरै, जुरै परि गाँठ परि जाए।।
           पारिवारिक रिश्तों में अविश्वास और झूठ से एक बार किसी के मन में अविश्वास घर करे तो उसे मिटाना मुश्किल ही होता है। भले ही हम वास्तविकता को सच्चाई अथवा झूठ का सहारा लेकर बताने की कोशिश करेंगे तो भी पहले जैसा आत्मीय रिश्ता जूटा पाना कठीन हो जाता है। तो चलिए सच्चाई के साथ रिश्ते निभाए। झूठ यदि किसी के जान, मान, सम्मान, भलाई के लिए हो तो जरूर झूठ का सहारा लेना चाहिए, ऐसे झूठ को तो सच्चाई भी अपनाती है। ऐसे जीवन में मिठास भरनेवाले झूठ को अपनाने में दोष नहीं क्योंकि मरणासन्न व्यक्ति को भी जीने की झूठी तसल्ली तो सभी देते हैं। आत्मीय सुख के लिए सच को झूठ और झूठ को सच करने वालों को स्वयं की खुदगर्जी भी माफ़ नहीं करेगी।
         मित्र द्वारा दिए समय में बहुत सोचने के बाद इतना ही बता पाया - 'दोस्त सच्चा झूठ और झूठा का सच परखना याने कि नदी के दो किनारों को एक करने जैसा होगा क्योंकि जहाँ नदी के दो किनारे एक हो जाते है वहाँ नदी का अस्तित्व मिट जाता है, उसे बस नाम के लिए नदी कहा जाएगा जिसमें प्राण नहीं होगा। उसे बहने दीजिए। ठीक उसी तरह मानव जीवन में झूठ और सच चिपका हुआ है। जिस दिन इनमें से एक भी छूट जाएगा तो मानव 'मानव' नहीं रहेगा वह उसकी अंतिम गति होगी। मनुष्य सच को पकड़कर बैठेगा तो झूठ उसे नोचता रहेगा और झूठ को अपनाएगा तो जी नहीं पाएगा। इससे बात स्पष्ट है कि झूठ और सच एक दूसरे को बराबर विरुद्ध दिशा में चिपके हैं। जो कभी एक साथ नहीं देख सकते हैं, ना ही अपना सकते है और ना ही त्याग सकते है। बस अनुकूल-प्रतिकूल समय के अनुसार प्रयोग करें इसी में सभी की भलाई हैं।‘
***** धन्यवाद!!! *****
आलेख लेखन 
श्री. मच्छिंद्र बापू भिसे 

उप अध्यापक
ग्राम भिराडाचीवाडी
पोस्ट भुईंज, तहसील वाई,
जिला सातारा - 415 515 (महाराष्ट्र) 
9730491952 / 9545840063 
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