इस ब्लॉग पर सभी हिंदी विषय अध्ययनार्थी एवं हिंदी विषय अध्यापकों का हार्दिक स्वागत!!! मच्छिंद्र भिसे (हिंदी विषय शिक्षक, कवि, संपादक)

Wednesday 13 September 2017

१४ सितंबर 'हिंदी दिवस' विशेष

हिंदी भाषा का महत्व
               


       पूरे देश में हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। पहली बार 1953 में इस दिन हिंदी दिवस मनाया गया था। इस विशेष दिन पर हिंदी दिवस मनाने के पीछे एक खास वजह है। इसी दिन 14 सितंबर 1949 को भारत की संविधान सभा में देवनागरी लिपि में लिखी हिंदी को देश की आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया गया था। संविधान सभा ने ही देश का संविधान बनाया है। उस समय व्यवस्था थी कि हिंदी के साथ ही अगले 15 सालों तक अंग्रेजी भी भारतीय गणराज्य की आधिकारिक भाषा रहेगी। उसके उपरांत हिंदी एकमात्र भाषा होगी। हालांकि 1960 के दशक में दक्षिण भारतीय राज्यों खासकर तमिलनाडु हिंदी को एकमात्रा राजभाषा बनाए जाने के हिंसक विरोध हुआ। परिणामस्वरूप अंग्रेजी को सर्वदा के लिए हिंदी के साथ आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त हो गया। हिंदी दिवस पर पूरे देश में विशेष कार्यक्रम होते हैं। इनमें भाषण और वाद-विवाद प्रतियोगिताएं भी शामिल हैं। नीचे इस हिंदी दिवस पर दिया जा सकने वाला एक भाषण प्रस्तुत है। पाठक इसका प्रयोग अपन संभाषणों में करने के अलावा इसके आधार पर अपने स्वतंत्र भाषण भी लिख सकते हैं। 

          आज हिंदी का दिन है। हिंदी दिवस। आज ही के दिन हिंदी को संवैधानिक रूप से भारत की आधिकारिक भाषा का दर्जा मिला था। दो सौ साल की ब्रिटिश राज की गुलामी से आजाद हुए देश ने तब ये सपना देखा था कि एक दिन पूरे देश में एक ऐसी भाषा होगी जिसके माध्यम से कश्मीर से कन्याकुमारी तक संवाद संभव हो सकेगा। आजादी के नायकों को इस बात में तनिक संदेह नहीं था कि हिन्दुस्तान की संपर्क भाषा बनने का महती दायित्व केवल और केवल हिंदी उठा सकती है। इसीलिए इस संविधान निर्माताओं ने देवनागरी में लिखी हिंदी को नए देश की आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया। संविधान निर्माताओं ने तय किया था कि जब तक हिंदी वास्तविक अर्थों में पूरे देश की संपर्क भाषा नहीं बना जाती तब तक अंग्रेजी भी देश की आधिकारिक भाषा रहेगी।

          संविधान निर्माताओं का अनुमान था कि आजादी के बाद अगले 15 सालों में हिंदी पूरी तरह अंग्रेजी की जगह ले लेगी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हों या देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, सभी इस बात पर एकमत थे कि ब्रिटेन की गुलामी की प्रतीक अंग्रेजी भाषा को हमेशा के लिए देश की आधिकारिक भाषा नहीं होना चाहिए। लेकिन अंग्रेजों के जाने के बाद भी उनकी “फूट डालो और राज करो” की नीति भाषा के क्षेत्र में चलती रही। हिंदी को एकमात्र आधिकारिक भाषा के खिलाफ उसकी बहनों ने ही बगावत कर दी। उन्होंने एक परायी भाषा “अंग्रेजी” के पक्ष में खड़ा होकर अपनी सहोदर भाषा का विरोध किया। जबकि उनका भय पूरी तरह निराधार था। हिंदी किसी भी दूसरी भाषा की कीमत पर राष्ट्रभाषा नहीं बनना चाहती। देश की सभी राज्य सरकारें अपनी-अपनी राजभाषाओं में काम करने के लिए स्वतंत्र थीं। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का विचार परस्पर सह-अस्तित्व पर आधारित था, न कि एक भाषा की दूसरी भाषा की अधीनता पर।

       आजादी के 70 साल बाद भी स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों की वह इच्छा अधूरी है। आज पूरे देश में शायद ही ऐसा कोना हो जहाँ दो-चार हिंदी भाषी न हों। शायद ही ऐसा कोई प्रदेश हो जहाँ आम लोग कामचलाऊ हिंदी न जानते हों। भले ही आधिकारिक तौर पर हिंदी देश की राष्ट्रभाषा न हो केवल राजभाषा हो, व्यावाहरिक तौर पर वो इस देश की सर्वव्यापी भाषा है। ऐसे में जरूरत है हिंदी को उसका वाजिब हक दिलाने की जिसका सपना संविधान निर्माताओं ने देखा था।

      हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की माँग कमोबेश हर हिंदी भाषी को सुहाती है। लेकिन इसकी आलोचना पर बहुत से लोग मुँह बिचकाने लगते हैं। आज हम हिंदी की ऐसी दो खास समस्याओं पर बात करेंगे जिन्हें दूर किए बिना हिंदी सही मायनों में राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती। अंग्रेजी, चीनी, अरबी, स्पैनिश, फ्रेंच इत्यादि के साथ ही हिंदी दुनिया की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में एक है। लेकिन इसकी तुलना अगर अन्य भाषाओं से करें तो ये कई मामलों में पिछड़ी नजर आती है और इसके लिए जिम्मेदार है कुछ हिंदी प्रेमियों का संकीर्ण नजरिया। हिंदी के विकास में सबसे बड़ी बाधा वो शुद्धतावादी हैं जो इसमें से फारसी, अरबी, तुर्की और अंग्रेजी इत्यादि भाषाओं से आए शब्दों को निकाल देना चाहते हैं। ऐसे लोग संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों के बोझ तले कराहती हिंदी को “सच्ची हिंदी” मानते हैं।
       जिस भाषा में जितनी मिलावट होती है वो उतनी समृद्धि और प्राणवान होती है। अंग्रेजों को लूट, डकैती, धोती और पंडित जैसे खालिस भारतीय शब्द अपनी भाषा में शामिल करने में कोई लाज नहीं आती लेकिन भारतीय शुद्धतावादी लालटेन, कम्प्यूटर, अस्पताल, स्कूल, इंजन जैसे शब्दों को देखकर भी मुँह बिचकाते हैं जिनका प्रयोग अनपढ़ और गंवई भारतीय भी आसानी से कर लेते हैं। तो हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने के लिए जरूरी है कि वो समस्त भारतीय भाषाओं और अन्य भाषाओं से अपनी जरूरत के हिसाब से शब्दों को लेने में जरा भ संकोच न करे। हम परायी भाषा के शब्दों को हिंदी में जबरन घुसेड़ने की वकालत नहीं कर रहे। लेकिन जो शब्द सहज और सरल रूप से हिंदी में रच-बस गये हों उन्हें गले लगाने की बात कर रहे हैं।

          हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने में दूसरी बड़ी दिक्कत है इसका ज्ञान-विज्ञान में हाथ तंग होना। कोई भाषा केवल अनुपम साहित्य के बल पर राष्ट्रभाषा का दायित्व नहीं निभा सकती। भाषा को ज्ञान, विज्ञान, व्यापार और संचार इत्यादि क्षेत्रों के लिए भी खुद को तैयार करना होता है। आज हिंदी इन क्षेत्रों में दुनिया की अन्य बड़ी भाषाओं से पीछे है। गैर-साहित्यिक क्षेत्रों में हिंदी में उच्च गुणवत्ता के चिंतन और पठन सामग्री के अभाव से हिंदी बौद्धिक रूप से विकलांग प्रतीत होती है। आज जरूरत है कि विज्ञान और समाज विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में हिन्दुस्तानी को बढ़ावा दिया जाए। तभी सही मायनो में हिंदी देश की राष्ट्रभाषा बन सकेगी। अगर इन दो बातों पर पर्याप्त ध्यान दिया जाए तो हिंदी को वैश्विक स्तर पर पहचान और प्रतिष्ठा पाने से कोई नहीं रोक सकेगा। हिंदी दिवस पर आधुनिक हिंदी के जनक माने जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र की कालजयी पंक्तियां याद करना समीचीन होगा-

 सिर्फ मातमपुर्सी से काम नहीं चलने वाला। हिंदी भारतवर्ष में राज-काज की भाषा है, हमारे सम्मान की प्रतीक है और सभी प्रांतीय एवं स्थानीय भाषाएं हिंदी की बहनें। भारतवर्ष में बोली जाने वाली समस्त स्थानीय भाषाओं का एक समान आदर-सम्मान हमारा राष्ट्रधर्म होना चाहिए। डॉ। राम मनोहर लोहिया ने प्रत्येक हिंदीभाषी क्षेत्र के निवासी को सलाह दी थी कि वे कम से कम जहां जिस क्षेत्र या प्रदेश में रह रहे हों, वहां की स्थानीय भाषा को सीखें, उसका आदर करें, उसी स्थानीय भाषा को वहां पर बोलचाल में अपनाएं। इसी के साथ समूचे भारत के लोगों को हिंदी अवश्य सीखने की सलाह भी डॉ। लोहिया ने दी थी। आज हिंदी उस जगह पर नहीं है, जहां उसे होना चाहिए था। हिंदीभाषी क्षेत्रों के शहरी इलाक़ों में रहने वाले लोग हिंदी की जगह अंग्रेजी एवं पाश्चात्य सभ्यता को जाने-अनजाने बढ़ावा देते चले आ रहे हैं। हिंदी समूचे राष्ट्र के लिए सम्मान की प्रतीक होनी चाहिए, परंतु ऐसा हो नहीं पा रहा है।

         हम अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को कतई ग़लत नहीं मानते। किसी भी भाषा का ज्ञान व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास एवं योग्यता के लिए बहुत आवश्यक होता है, लेकिन जब किसी भाषा को किसी देश की मातृभाषा-स्थानीय भाषा पर थोपा जाता है, तब कष्ट होता है। भारत के लोगों को भी चीन, जापान, रूस, फ्रांस एवं स्पेन आदि देशों के लोगों की तरह अंग्रेजी को स़िर्फ एक साधारण भाषा के तौर पर ही लेना चाहिए।

     अंग्रेजों के जाने के पश्चात भी अंग्रेजपरस्त लोगों की गुलाम मानसिकता के कारण आज़ाद भारत में आज भी निज भाषा गौरव का बोध परवान नहीं चढ़ पा रहा है। जगह-जगह यानी हर शहर एवं क़स्बे में अंग्रेजी में लिखे बोर्ड देखकर इस भाषाई पराधीनता की वस्तुस्थिति को समझा जा सकता है। आज की शिक्षा बच्चों के लिए बोझ सदृश्य हो गई है। वर्तमान शिक्षा में अंग्रेजी के अनावश्यक महत्व ने आमजन एवं ग़रीबों के बच्चों के विकास को बाधित कर रखा है। जो ग़रीब का बच्चा, आम आदमी का बच्चा हिंदी या अपनी किसी अन्य मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करता है, उसे अपने आप शैक्षिक रूप से पिछड़ा मान लिया जाता है। अंग्रेजी भाषा का झुनझुना उसके हाथों में पकड़ा कर उसके बोल कानों में जबरन डाले जाते हैं। वह बेबस बच्चा दोहरी पढ़ाई करता है यानी एक तो शिक्षा ग्रहण करना और दूसरे पराई भाषा को भी पढ़ना। उस पर अंग्रेजपरस्त लोगों का यह कहना कि अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा है, इसका महत्व किसी भी स्थानीय भाषा के महत्व से ज़्यादा है, गुलाम मानसिकता का द्योतक है। इसी गुलाम मानसिकता वाले अंग्रेजपरस्त लोगों ने अंग्रेजी भाषा को आज प्रतिष्ठा का विषय बना लिया है। जबकि सत्य यह है कि आज लोग इस भ्रम में अपने बच्चों को अंग्रेजी की शिक्षा दिलाना चाहते हैं कि अंग्रेजी सीखने के बाद जीविका के तमाम अवसर मिल जाएंगे। दरअसल किसी भी भाषा के बढ़ने के कारकों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह हो गई है कि उस भाषा का प्रत्यक्ष लाभ आदमी को रोजी-रोटी कमाने में मिले। जिस भाषा से ज्ञान और शिक्षा को संगठित करके रोज़गारपरक बना दिया जाता है, वह भाषा आमजन के मध्य लोकप्रिय होती जाती है। आज भारत की भाषाओं पर एक सोची-समझी रणनीति के तहत अंग्रेजी थोप दी गई है। जीविका को अंग्रेजी भाषा का आश्रित बनाकर भारत के लोगों को मानसिक तौर पर गुलाम बना लिया गया है। आज पूरे विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहां के निवासियों को अपनी भाषा में बातचीत करने या लिखने-पढ़ने में भी शर्म आने लगी है। भारत के मूल निवासी अधकचरी अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस करते हैं। 
        हम अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को कतई ग़लत नहीं मानते। किसी भी भाषा का ज्ञान व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास एवं योग्यता के लिए बहुत आवश्यक होता है, लेकिन जब किसी भाषा को किसी देश की मातृभाषा-स्थानीय भाषा पर थोपा जाता है, तब कष्ट होता है। भारत के लोगों को भी चीन, जापान, रूस, फ्रांस एवं स्पेन आदि देशों के लोगों की तरह अंग्रेजी को स़िर्फ एक साधारण भाषा के तौर पर ही लेना चाहिए। भाषा ज्ञान का पर्यायवाची नहीं होती है। कोई भी राष्ट्र अपनी भाषा में तऱक्क़ी के बेमिसाल मापदंड स्थापित कर सकता है, इसके जीवंत उदाहरण जापान, अमेरिका एवं चीन आदि देश हैं।


निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।। 

जय हिंद, जय हिंदी, जय हिंदुस्थान, जय भारत - भारती 


संकलित 

शुभोदय,
सभी हिंदी अध्यापक भाई-बहनो, हिंदी प्रेमियो, हिंदी के प्रचार-प्रसारक एवं हिंदी के मेरे छोटे नौजवानो (छात्रो) !  आप सभी को हिंदी दिवस के अवसर पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
   आज समूचे मेरे भारत देश में हिंदी दिवस का पावन पर्व मनाया जा रहा है।  हिंदी मात्र एक भाषा नहीं हैं तो करोडो भारतीय एवं विदेशियों के हृदयाधिनिस्त जगह निर्माण की हुई समूचे अंतर्राष्ट्रीयहिंदी प्रेमियों के दिलों की धड़कन है। यह भारत-भारती को मधुर एवं गरिमा के साथ जोड़ती है। हम सभी इसका मान-सम्मान बढ़ाने,  उसके प्रचार-प्रसार हेतु एक कदम आगे बढ़ाए क्योंकि यह मेरी, अपनी-आपकी की भाषा है। चलो इसे अपनाते हुए एक-एक मोती इसमें जोड़ दिए जाते है ।

हिंदी है अपनी बोली,
बोली से भी मीठी गोली,
भर देती है समूचे जीवन में मिठास,
ऐसा है मेरी राष्ट्रभाषा के प्रति आत्मविश्वास।

एक दिन आएगा,
समूचा भारत देश इसे अपनाएगा,
चलो हिंदी की बागडौर थाम ले,
अपने जीवन का उत्थान कर ले।

गाते रहेंगे हमेशा हिंदी के गुणगान,
हिंदी है समूचे विश्व में महान,
प्यार करते हैं हम उससे खुद से ज्यादा,
कभी नहीं झुकने देंगे हिंदी का सिर, करते हैं हम सभी से वादा।

हिंदी दिवस की फिर से एक बार बहुत शुभकामनाएँ

- मच्छिंद्र बापू भिसे
ज्ञानदीप इंग्लिश मीडियम स्कूल, पसरणी 

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