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Sunday, 8 April 2018

भारत महिमा -जयशंकर प्रसाद

मूल रचना 

भारत महिमा -जयशंकर प्रसाद

हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार । 
उषा ने हँस अभिनंदन किया, और पहनाया हीरक-हार ।।

जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक ।
व्योम-तुम पुँज हुआ तब नाश, अखिल संसृति हो उठी अशोक ।।

विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत ।
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत ।।

बचाकर बीच रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत ।
अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ में हम बढ़े अभीत ।।

सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता का विकास ।
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास ।।

सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह ।
दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह ।।

धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद ।
हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद ।।

विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम ।
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम ।

यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि ।।

किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं ।
हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं ।।

जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर ।
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर ।।

चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न ।
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न ।।

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव ।
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव ।।

वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान ।
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान ।।

जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष ।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।

Monday, 2 April 2018

हिंदी में हाइकु कविता

हिंदी में हाइकु कविता
     हिंदी साहित्य की अनेकानेक विधाओं में 'हाइकु' नव्यतम विधा है। हाइकु मूलत: जापानी साहित्य की प्रमुख विधा है। आज हिंदी साहित्य में हाइकु की भरपूर चर्चा हो रही है। हिंदी में हाइकु खूब लिखे जा रहे हैं और अनेक पत्र-पत्रिकाएँ इनका प्रकाशन कर रहे हैं। निरंतर हाइकु संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। यदि यह कहा जाए कि वर्तमान की सबसे चर्चित विधा के रूप में हाइकु स्थान लेता जा रहा है तो अत्युक्ति होगी। 

     हाइकु को काव्य-विधा के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की मात्सुओ बाशो (१६४४-१६९४) ने। बाशो के हाथों सँवरकर हाइकु १७वीं शताब्दी में जीवन के दर्शन से अनुप्राणित होकर जापानी कविता की युग-धारा के रूप में प्रस्फुटित हुआ। आज हाइकु जापानी साहित्य की सीमाओं को लाँघकर विश्व-साहित्य की निधि बन चुका है। 

     हाइकु अनुभूति के चरम क्षण की कविता है। सौंदर्यानुभूति अथवा भावानुभूति के चरम क्षण की अवस्था में विचार, चिंतन और निष्कर्ष आदि प्रक्रियाओं का भेद मिट जाता है। यह अनुभूत क्षण प्रत्येक कला के लिए अनिवार्य है। अनुभूति का यह चरम क्षण प्रत्येक हाइकु कवि का लक्ष्य होता है। इस क्षण की जो अनुगूँज हमारी चेतना में उभरती है, उसे जिसने शब्दों में उतार दिया, वह एक सफल हाइकु की रचना में समर्थ हुआ। बाशो ने कहा है, "जिसने जीवन में तीन से पाँच हाइकु रच डाले, वह हाइकु कवि है। जिसने दस हाइकु की रचना कर डाली, वह महाकवि है।" 

            (
प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-२२)
     हाइकु कविता को भारत में लाने का श्रेय कविवर रवींद्र नाथ ठाकुर को जाता है। "भारतीय भाषाओं में रवींद्रनाथ ठाकुर ने जापान-यात्रा से लौटने के पश्चात १९१९ में 'जापानी-यात्री' में हाइकु की चर्चा करते हुए बंगला में दो कविताओं के अनुवाद प्रस्तुत किए। वे कविताएँ थीं - 

पुरोनो पुकुर
ब्यांगेर लाफ
जलेर शब्द। 

पचा डाल
एकटा को
शरत्काल। 

दोनों अनुवाद शब्दिक हैं और बाशो की प्रसिद्ध कविताओं के हैं।"
(प्रो. सत्यनारायण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-२९) 

     हाइकु कविता आज विश्व की अनेक भाषाओं में लिखी जा रही हैं तथा चर्चित हो रही हैं। प्रत्येक भाषा की अपनी सीमाएँ होती हैं, अपनी वर्ण व्यवस्था होती है और अपना छंद विधान होता है, इसी के अनुरूप उस भाषा के साहित्य की रचना होती है। हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। यह लिपि वैज्ञानिक लिपि है और (अपवाद को छोड़कर) जो कुछ लिखा जाता है वही पढ़ा जाता है। हाइकु के लिए हिंदी बहुत ही उपयुक्त भाषा है। 

     हाइकु सत्रह (१७) अक्षर में लिखी जाने वाली सबसे छोटी कविता है। इसमें तीन पंक्तियाँ रहती हैं। प्रथम पंक्ति में अक्षर, दूसरी में और तीसरी में अक्षर रहते हैं। संयुक्त अक्षर को एक अक्षर गिना जाता है, जैसे 'सुगन्ध' में तीन अक्षर हैं - सु-, -, न्ध-) तीनों वाक्य अलग-अलग होने चाहिए। अर्थात एक ही वाक्य को ,, के क्रम में तोड़कर नहीं लिखना है। बल्कि तीन पूर्ण पंक्तियाँ हों। 

     अनेक हाइकुकार एक ही वाक्य को -- वर्ण क्रम में तोड़कर कुछ भी लिख देते हैं और उसे हाइकु कहने लगते हैं। यह सरासर ग़लत है, और हाइकु के नाम पर स्वयं को छलावे में रखना मात्र है। अनेक पत्रिकाएँ ऐसे हाइकुओं को प्रकाशित कर रही हैं। यह इसलिए कि इन पत्रिकाओं के संपादकों को हाइकु की समझ होने के कारण ऐसा हो रहा है। इससे हाइकु कविता को तो हानि हो ही रही है साथ ही जो अच्छे हाइकु लिख सकते हैं, वे भी काफ़ी समय तक भ्रमित होते रहते हैं। 

     हाइकु कविता में -- का अनुशासन तो रखना ही है, क्योंकि यह नियम शिथिल कर देने से छंद की दृष्टि से अराजकता की स्थिति जाएगी। कोई कुछ भी लिखेगा और उसे हाइकु कहने लगेगा। वैसे भी हिंदी में इतने छंद प्रचलित हैं, यदि -- में नहीं लिख सकते तो फिर मुक्त छंद में अपनी बात कहिए, क्षणिका के रूप में कहिए उसे 'हाइकु' ही क्यों कहना चाहते हैं? अर्थात हिंदी हाइकु में -- वर्ण का पालन होता रहना चाहिए यही हाइकु के हित में हैं। 

     अब -- वर्ण के अनुशासन का पूरी तरह से पालन किया और कर रहे हैं, परंतु मात्र -- वर्णों में कुछ भी ऊल-जलूल कह देने को क्या हाइकु कहा जा सकता है? साहित्य की थोड़ी-सी भी समझ रखने वाला यह जानता है कि किसी भी विधा में लिखी गई कविता की पहली और अनिवार्य शर्त उसमें 'कविता' का होना है। यदि उसमें से कविता ग़ायब है और छंद पूरी तरह से सुरक्षित है तो भला वह छंद किस काम का! 

     हाइकु साधना की कविता है। किसी क्षण विशेष की सघन अनुभूति कलात्मक प्रस्तुति हाइकु है। प्रो. सत्यभूषण वर्मा के शब्दों में -
            "
आकार की लघुता हाइकु का गुण भी है और यही इसकी सीमा भी। अनुभूति के क्षण की अवधि एक निमिष, एक पल अथवा एक प्रश्वास भी हो सकता है। अत: अभिव्यक्ति की सीमा उतने ही शब्दों तक है जो उस क्षण को उतार पाने के लिए आवश्यक है। हाइकु में एक भी शब्द व्यर्थ नहीं होना चाहिए। हाइकु का प्रत्येक शब्द अपने क्रम में विशिष्ट अर्थ का द्योतक होकर एक समन्वित प्रभाव की सृष्टि में समर्थ होता है। किसी शब्द को उसके स्थान से च्युत कर अन्यत्र रख देने से भाव-बोध नष्ट हो जाएगा। हाइकु का प्रत्येक शब्द एक साक्षात अनुभव है। कविता के अंतिम शब्द तक पहुँचते ही एक पूर्ण बिंब सजीव हो उठता है।"
(
प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-२७) 

     थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कहना आसान नहीं है। हाइकु लिखने के लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता है। एक बैठक में थोक के भाव हाइकु नहीं लिखे जाते, हाइकु के नाम पर कबाड़ लिखा जा सकता है। यदि आप वास्तव में हाइकु लिखना चाहते हैं तो हाइकु को समझिए, विचार कीजिए फिर गंभीरता से हाइकु लिखिए। निश्चय ही आप अच्छा हाइकु लिख सकेंगे। यह चिंता कीजिए कि जल्दी से जल्दी मेरे पास सौ-दो सौ हाइकु हो जाएँ और इन्हें पुस्तक के रूप में प्रकाशित करा लिया जाए। क्योंकि जो हाइकु संग्रह जल्दबाजी में प्रकाशित कराए गए हैं, वे कूड़े के अतिरिक्त भला और क्या है? इसलिए आप धैर्य के साथ लिखते रहिए जब उचित समय आएगा तो संग्रह छप ही जाएगा। यदि आप में इतना धैर्य है तो निश्चय ही आप अच्छे हाइकु लिख सकते हैं। प्राय: यह देखा गया है कि जो गंभीर साहित्यकार हैं वे किसी भी विधा में लिखें, गंभीरता से ही लिखते हैं। हाइकु के लिए गंभीर चिंतन चाहिए, एकाग्रता चाहिए और अनुभूति को पचाकर उसे अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त धैर्य चाहिए। 

     हिंदी साहित्य का एक दुर्भाग्य और है कि अनेक ऐसे लोग घुस आए हैं जिनका कविता या साहित्य से कुछ भी लेना-देना नहीं है। जब हाइकु का नाम ऐसे लोगों ने सुना तो इन्हें सबसे आसान यही लगा, क्योंकि -- में कुछ भी कहकर हाइकु कह दिया। अपना पैसा लगाकर हाइकु संग्रह छपवा डाले। यहाँ तक तो ठीक है क्योंकि अपना पैसा लगाकर कोई कुछ भी छपवाए, भला उसे रोकने वाला कौन है। लेकिन जब पास-पड़ोस के नई पीढ़ी के नवोदित हाइकुकारों को उनका सानिध्य मिला तो उन्होंने उन्हें भी अपने साथ उसी कीचड़ में खींच लिया। उनसे भी रातों-रात हज़ारों हाइकु लिखवा डाले और भूमिकाएँ स्वयं लिखकर भूमिका लेखक की अपूर्ण अभिलाषा को तृप्त कर डाला। और हाइकु या अन्य विधा की एक बड़ी संभावना की भ्रूणहत्या कर डाली। 

     नए हाइकुकारों को ऐसे लोगों से बचने की आवश्यकता है। हाइकु लिखते समय यह देखें कि उसे सुनकर ऐसा लगे कि दृश्य उपस्थित हो गया है, प्रतीक पूरी तरह से खुल रहे हैं, बिंब स्पष्ट है। हाइकु लिखने के बाद आप स्वयं उसे कई बार पढ़िए, यदि आपको अच्छा लगता है तो निश्चय ही वह एक अच्छा हाइकु होगा ही। 

हाइकु काव्य का प्रिय विषय प्रकृति रहा है। हाइकु प्रकृति को माध्यम बनाकर मनुष्य की भावनाओं को प्रकट करता है। हिंदी में इस प्रकार के हाइकु लिखे जा रहे हैं। परंतु अधिकांश हिंदी हाइकु में व्यंग्य दिखाई देता है। व्यंग्य हाइकु कविता का विषय नहीं है। परंतु जापान में भी व्यंग्य परक काव्य लिखा जाता है। क्योंकि व्यंग्य मनुष्य के दैनिक जीवन से अलग नहीं है। जापान में इसे हाइकु कहकर 'सेर्न्यू' कहा जाता है। हिंदी कविता में व्यंग्य की उपस्थिति सदैव से रही है। इसलिए इसे हाइकु से अलग रखा जाना बहुत कठिन है। इस संदर्भ में कमलेश भट्ट 'कमल' का विचार उचित प्रतीत होता है -

            "हिंदी में हाइकु और 'सेर्न्यू' के एकीकरण का मुद्दा भी बीच-बीच में बहस के केंद्र में आता रहता है। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि हिंदी में हाइकु और 'सेर्न्यू' दोनों विधाएँ हाइकु के रूप में ही एकाकार हो चुकी है और यह स्थिति बनी रहे यही हाइकु विधा के हित में होगा। क्योंकि जापानी 'सेर्न्यू' को हल्के-फुल्के अंदाज़ वाली रचना माना जाता है और हिंदी में ऐसी रचनाएँ हास्य-व्यंग्य के रूप में प्राय: मान्यता प्राप्त कर चुकी हैं। अत: हिंदी में केवल शिल्प के आधार पर 'सेर्न्यू' को अलग से कोई पहचान मिल पाएगी, इसमें संदेह है। फिर वर्ण्य विषय के आधार पर हाइकु को वर्गीकृत/विभक्त करना हिंदी में संभव नहीं लग रहा है। क्योंकि जापानी हाइकु में प्रकृति के एक महत्वपूर्ण तत्व होते हुए भी हिंदी हाइकु में उसकी अनिवार्यता का बंधन सर्वस्वीकृत नहीं हो पाया है। हिंदी कविता में विषयों की इतनी विविधता है कि उसके चलते यहाँ हाइकु का वर्ण्य विषय बहुत-बहुत व्यापक है। जो कुछ भी हिंदी कविता में हैं, वह सबकुछ हाइकु में भी रहा है। संभवत: इसी प्रवृत्ति के चलते हिंदी की हाइकु कविता कहीं से विजातीय नहीं लगती।"

(कमलेश भट्ट कमल, 'हिंदी हाइकु : इतिहास और उपलब्धि' - संपादक- डॉ. रामनारायण पटेल 'राम' पृष्ठ-४२) 

     हिंदी में हाइकु को गंभीरता के साथ लेने वालों और हाइकुकारों की लंबी सूची है। इनमें प्रोफेसर सत्यभूषण वर्मा का नाम अग्रणी हैं। डॉ. वर्मा ने हाइकु को हिंदी में विशेष पहचान दिलाई है। वे पूरी तत्परता के साथ इस अभियान में जुड़े हुए हैं। कमलेश भट्ट 'कमल' ने हाइकु-१९८९ तथा हाइकु-१९९९ का संपादन किया जो हाइकु के क्षेत्र में अति महत्वपूर्ण कार्य माना जाता है। डॉ. भगवत शरण अग्रवाल हाइकु भारती पत्रिका का संपादन कर रहे हैं और हाइकु पर गंभीर कार्य कर रहे हैं। प्रो. आदित्य प्रताप सिंह हाइकु को लेकर काफ़ी गंभीर हैं और हिंदी हाइकु की स्थिति को सुधारने की दिशा में चिंतित हैं। उनके अनेक लेख प्रकाशित हो चुके हैं। हाइकु दर्पण पत्रिका का संपादन डॉ. जगदीश व्योम कर रहे हैं, यह पत्रिका हाइकु की महत्वपूर्ण पत्रिका है। डॉ. रामनारायण पटेल 'राम' ने 'हिंदी हाइकु : इतिहास और उपलब्धियाँ' पुस्तक का संपादन किया है। इस पुस्तक में हाइकु पर अनेक गंभीर लेख हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय से कस्र्णेश भट्ट ने हाइकु पर शोधकार्य किया है। हाइकुकारों में इस समय लगभग २०० से भी अधिक हाइकुकार हैं जो गंभीरता के साथ हाइकु लिख रहे हैं। यह संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। 

     जिन हाइकुकारों के हाइकु प्राय: चर्चा में रहते हैं उनमें प्रमुख हैं - डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ. शैल रस्तोगी, कमलेश भट्ट 'कमल', पारस दासोत, डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव, डॉ. आदित्य प्रताप सिंह, डॉ. गोपाल बाबू शर्मा, डॉ. राजन जयपुरिया, डॉ. सुरेंद्र वर्मा, डॉ. जगदीश व्योम, नीलमेन्दु सागर, रामनिवास पंथी आदि हैं। 

कुछ हाइकु जो काव्य की दृष्टि से अपने अंतस में बहुत कुछ समाहित किए हुए हैं, दृष्टव्य हैं। डॉ. सुधा गुप्ता हाइकु में पूरा दृश्य उपस्थित कर देती हैं - 

माघ बेचारा
कोहरे की गठरी
उठाए फिरे। 

शैतान बच्ची
मौलसिरी के पेड़
चढ़ी है धूप। 

चिड़िया रानी
चार कनी बाजरा
दो घूँट पानी। 

कमलेश भट्ट 'कमल' के हायकु पूरी तरह से खुलते हैं और अपना प्रभाव छोड़ते हैं- 

फूल सी पली
ससुराल में बहू
फूस सी जली। 

कौन मानेगा
सबसे कठिन है
सरल होना। 

प्रकृति के किसी क्षण को देखकर उसका मानवीकरण डॉ. शैल रस्तोगी ने कितनी कुशलता से किया है - 
कमर बंधी
मूँगे की करघनी
परी है उषा। 

गौरैया ढूँढ़े
अपना नन्हा छौना
धूल ढिठौना। 

मैया री मैया
पहुना मेघ आए
कहाँ बिठाऊँ? 

रूप निहारे
मुग्धा नायिका झील
चाँद कंदील। 


निरंतर छीजती जा रही लोक संस्कृति और उजड़ते जा रहे ग्राम्य संस्कृति को लेकर भी हाइकुकार चिंतित हैं। डॉ. गोपालबाबू शर्मा के शब्दों में- 



तपती छाँव
पनघट उदास
कहाँ वे गाँव? 

अब तो भूले
फाग, राग, कजरी
मल्हार, झूले। 


वर्तमान समय में धैर्य के साथ-साथ साहस की भी आवश्यकता है और एकाकीपन व्यक्ति को दार्शनिक चिंतन की ओर ले जाता है- इन भावों को व्यक्त करते हैं निम्नलिखित हाइकु 




नभ की पर्त
चीर गई चिड़िया
देखा साहस। - मदनमोहन उपेंद्र 

साँझ की बेला
पंछी ऋचा सुनाते
मैं हूँ अकेला! - रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु' 


     युद्ध की विभीषिका कितनी भयावह होती है इसे भुक्तभोगी ही जानते हैं। प्रकृति के प्रकोप को भी व्यक्ति करना असंभव है। व्यक्ति को सँभलने का अवसर ही नहीं मिलता, चाहे वह गुजरात का भूकंप हो या त्सुनामी लहरों का कहर। लेकिन व्यक्ति को जीना तो होगा ही, और जीने का हौसला भी रखना होगा। भले ही सब कुछ उजड़ जाए मगर जब तक लोक हैं, लोकतत्व हैं तब तक आशा रखनी है। दूब (दूब घास) लोक जीवन का प्रतीक है। अकाल के समय जब सब कुछ मिट जाता है तब भी दूब रहती है। यह जीवन का संकेत है। इन्ही भावो को व्यक्त करते हैं डॉ. जगदीश व्योम के ये हाइकु- 



छिड़ा जो युद्ध
रोएगी मनुजता
हँसेंगे गिद्ध। 

निगल गई
सदियों का सृजन
पल में धरा। 

क्यों तू उदास
दूब अभी है ज़िंदा
पिक कूकेगा। 


     कमल किशोर गोयनका के एक हाइकु में इन विचारों को बड़ी सुंदर अभिवयक्ति मिली है कि युद्ध के विनाशक वक्त गुज़रने के बाद भी भय और त्रासदी की छाया बहुत समय तक उस क्षेत्र पर छायी रहती है। भावी पीढ़ियाँ भी इससे प्रभावित होती हैं। वहीं दूसरी ओर कमलेश भट्ट कमल एक छोटे से हाइकु में कहते हैं कि झूठ कितना ही प्रबल क्यों हो एक एक दिन उसे सत्य के समक्ष पराजित होना ही होता है। यही सत्य है। यह भाव हमारे अंदर झूठ से संघर्ष करने की अपरिमित ऊर्जा का सृजन करता है। युवा वर्ग में बहुत कुछ करने का सामर्थ्य है आवश्यकता है तो उन्हें प्रेरित करने की, उन्हें उनकी शक्ति का आभास कराने की। इन्हीं भावों से भरी युवा वर्ग का आवाहन करती पंक्तियाँ है पारस दासोत की। ये तीनो हाइकु देखें- 

कोंपल जन्मी
डरी-डरी सहमी
हिरोशिमा में। -
कमलकिशोर गोयनका 

तोड़ देता है
झूठ के पहाड़ को
राई-सा सच।
-कमलेश भट्ट 'कमल' 

है जवान तू
भगीरथ भी है तू
चल ला गंगा।
-पारस दासोत 

     हिंदी में हाइकु कविता पर बहुत कार्य हो रहा है। अनेक हाइकु संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। इनमें भले ही कुछ हल्के संग्रह हों परंतु कुछ अच्छे संग्रह हैं। अभी बहुत कुछ निखर कर सामने आएगा। 

संकलन 
श्री. मच्छिंद्र भिसे 
९७३०४९१९५२